क्या फर्क है इन 2 सिम्बॉल के बिच में? इनमें से कौनसा सिम्बॉल है सर्वोच्च?


देश के सिम्बॉल अशोकचक्रवाले तिरंगे और भाजपा का सिम्बॉल कमल के फूल में जितना फर्क है उतना ही फर्क है माहेश्वरी समाज के सिम्बॉल "मोड़' और महासभा के सिम्बॉल कमल के फूल पर शिवलिंगवाले सिम्बॉल में.

जैसे तिरंगा हरएक भारतीय की, भारत देश की पहचान है और कमल का फूल यह सिम्बॉल भारतीय जनता पार्टी का सिम्बॉल है, जो वर्तमान समय में सत्ताधारी पार्टी है तथा देश का नेतृत्व कर रही है; वैसे ही 'मोड़' (एक त्रिशूल जिसके बिच के पाते में एक वृत्त और वृत्त के मध्य में ॐ होता है) हरएक माहेश्वरी की, माहेश्वरी समाज की पहचान है और कमल के फूल पर शिवलिंगवाला सिम्बॉल 'माहेश्वरी महासभा' इस संगठन का सिम्बॉल है, जो वर्तमान समय में माहेश्वरी समाज का नेतृत्व कर रहा है.

मोड़ (एक त्रिशूल जिसके बिच के पाते में एक वृत्त और वृत्त के मध्य में ॐ होता है), यह सिम्बॉल माहेश्वरी समाज का, माहेश्वरी संस्कृति का प्रतीकचिन्ह (सिम्बॉल) है, गौरवचिन्ह है. समाज का नेतृत्व करनेवाले संगठन का यह पहला कार्य होता है की समाज के संस्कृति का, समाज की विशिष्ठ पहचान का, समाज के प्रतीकों का, गौरवचिन्हों का संरक्षण-संवर्धन करें... लेकिन पता नहीं माहेश्वरी समाज का नेतृत्व करनेवाला संगठन 'माहेश्वरी महासभा' क्यों समाज के प्रतीकचिन्ह 'मोड़' की उपेक्षा करता है, उसे अनदेखा करता है. अबतक जो हुवा सो हुवा लेकिन अब महासभा को माहेश्वरी समाज के प्रतीकचिन्ह 'मोड़' का पुरे सम्मान और प्रोटोकॉल के अनुसार प्रयोग करना चाहिए.

संगठन में तो कुल समाज के कुछ दस-बीस प्रतिशत लोग सदस्य बनते है, संगठन का सिम्बॉल उन संगठन के सदस्यों की, संगठन की पहचान होता है लेकिन समाज का प्रतीकचिन्ह (सिम्बॉल) समस्त समाज की, समाज के हरएक व्यक्ति की पहचान होता है. समाज का प्रतीकचिन्ह समस्त समाज को एकता के अटूट बंधन में बांधे रखने का कार्य करता है इसलिए यह जरुरी है की समाज के प्रतीकचिन्ह का यथोचित एवं ससम्मान प्रयोग किया जाये. आम माहेश्वरी लोग अपनी अपनी क्षमता के अनुसार, उन्हें जो मंच मिले, जो माध्यम मिले उसका प्रयोग करके माहेश्वरी समाज के मूल प्रतीकचिन्ह की पहचान को, समाज की इस विशिष्ठ पहचान को कायम रखने का प्रयास कर रहे है, इसके लिए इनका जितना अभिनन्दन किया जाये, धन्यवाद किया जाये... कम ही है; लेकिन ना जाने क्यों समाज का नेतृत्व करनेवाला संगठन 'माहेश्वरी महासभा' अपने संगठन के सिम्बॉल को ही समाज का सिम्बॉल सिद्ध करने की गलत कोशिश करता रहा है, कर रहा है. महासभा को समझना चाहिए की उनकी यह कोशिश कभी भी सफल तो हो ही नहीं सकती क्योंकि कहीं ना कही, कोई ना कोई अपने समाज के इस गौरवचिन्ह "मोड़" के सम्मान की लड़ाई लड़ता रहेगा. समाज का जो गौरवचिन्ह पिछले 5000 वर्षों में भुलाया नहीं जा सका, क्या आगे उसे भुलाया जाना संभव है? अ. भा. माहेश्वरी महासभा यह संगठन खुद को समाज से ऊपर समझने लगा है यह धारणा आम माहेश्वरीयों मन में घर कर जाये और आम माहेश्वरी लोग महासभा से दुरी बना लें इससे पहले महासभा अतीत में हुई अपनी भूलों को सुधार लें यह महासभा के भी हित में है और समाज के भी हित में है.

जैसे कोई भी राजनीतिक पार्टी नहीं बल्कि देश सर्वोपरि होता है वैसे ही समाज के लिए कार्य करनेवाला कोई भी संगठन नहीं बल्कि समाज सर्वोपरि होता है. सिर्फ अपने संगठन को ही समाज समझने की जो भूल जाने-अनजाने में अबतक महासभा से हुई है, लेकिन अब आशा करते है की महासभा अपनी भूल को दुरुस्त करके सही मायने में समस्त माहेश्वरी समाज का नेतृत्व करने की और अग्रेसर होगी. महासभा खुद को समाज पर शासन करनेवाला संगठन नहीं समझें बल्कि समाजसेवक बनकर समाज की सेवा करनेवाला संगठन बने यह ना सिर्फ समाज के बल्कि महासभा के भी हित में होगा. समाज और समाज का नेतृत्व करनेवाला संगठन, इन दोनों के बिच के फर्क को समझे महासभा. इस बात के सार को समाज को, समाजजनों को भी समझना चाहिए. समाज के लोगों को यह बात समझ में नहीं आना ऐसा है जैसे देश के सिम्बॉल अशोकचक्रवाले तिरंगे और भाजपा का सिम्बॉल कमल के फूल में क्या फर्क है यह समझ में नहीं आना.

समाज का सिम्बॉल और संगठन का सिम्बॉल इन दोनों के बिच के फर्क को अधिक विस्तार से समझने के लिए कृपया इस link पर click कीजिये >

योगी प्रेमसुखानन्दजी माहेश्वरी को जन्मदिन की शुभकामनाएं !


माहेश्वरी समाज में एक नव-चेतना को, माहेश्वरी आत्मस्वाभिमान को जागृत करनेवाले, माहेश्वरी समाज की सर्वोच्च धार्मिक-आध्यात्मिक संस्था 'माहेश्वरी अखाड़ा' के पीठाधिपति श्री प्रेमसुखानन्दजी माहेश्वरी महाराज को जन्मदिन की बहुत बहुत बधाई !

जय महेश !!!

समाज, समाज का सिम्बॉल, समाज का सम्मान सर्वोपरि है


समाज का कोई भी संगठन 'समाज' से ऊपर नहीं होता,

संगठन नहीं, समाज है सर्वोपरि !

माहेश्वरी वंशोत्पत्ति दिवस "महेश नवमी" के समारोह में, इस समारोह के कार्यक्रम पत्रिका पर माहेश्वरी समाज के सिम्बॉल "मोड़" के बजाय सिर्फ माहेश्वरी महासभा के सिम्बॉल (कमलपुष्प पर शिवपिंड) छापना, प्रचारित करना ऐसे ही है जैसे की भारत के स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त के कार्यक्रम में तिरंगे ध्वज को नहीं बल्कि भाजपा या कांग्रेस इस राजनीतिक पार्टी के झंडे को फहराना. जैसे कोई भी राजनीतिक दल देश से ऊपर नहीं होता है वैसे ही समाज का कोई भी संगठन 'समाज' से ऊपर नहीं होता है इस बात को ना केवल समाज के संगठनों को, संस्थाओं को, संगठनों/संस्थाओं के पदाधिकारियों को बल्कि आम माहेश्वरीजनों को भी समझना होगा.

माहेश्वरी महासभा यह राष्ट्रिय स्तर का एक माहेश्वरी संगठन है, कुल माहेश्वरी समाज में से लगभग 10% समाजबंधु इस संगठन के सदस्य होने के कारन यह संगठन अनेको माहेश्वरी संगठनों में सबसे बड़ा संगठन है. माहेश्वरी महासभा इस संगठन का सिम्बॉल है- "कमलपुष्प पर शिवपिंड" वाला चिन्ह; यह चिन्ह माहेश्वरी महासभा इस संगठन का और इस संगठन के सदस्यों का प्रतिनिधित्व करता है. जैसे माहेश्वरी महासभा का सिम्बॉल "कमलपुष्प पर शिवपिंड" वाला चिन्ह है वैसे ही माहेश्वरी समाज का प्रतीकचिन्ह "मोड़" (एक त्रिशूल और त्रिशूल के बीच के पाते में एक वृत्त तथा वृत्त के बीच ॐ) है. मोड़ निशान माहेश्वरी समाज की सामाजिक/सांस्कृतिक/धार्मिक पहचान है जो समस्त समाज का, हरएक माहेश्वरी व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है.

उपरोक्त पैरेग्राप से आप माहेश्वरी समाज के इन 2 सिम्बॉल के बिच के अंतर को समझ गए होंगे. अब सवाल यह है की माहेश्वरी महासभा अपने संगठन के सिम्बॉल को 'समाज' का सिम्बॉल बताने पर क्यों तुली हुई है? महेश नवमी जैसे समस्त माहेश्वरी समाज के सबसे बड़े पर्व में भी माहेश्वरी महासभा और उनके पदाधिकारी समाज के सिम्बॉल का नहीं बल्कि उनके अपने संगठन के सिम्बॉल का ही प्रचार करते दिखाई देते है, ऐसा क्यों? सिर्फ 10% समाजबंधु इस संगठन के सदस्य है वो माहेश्वरी महासभा यह संगठन खुद को ही क्या "समस्त माहेश्वरी समाज" समझता है? एक तो माहेश्वरी महासभा ने वर्षों तक माहेश्वरी समाज के मूल प्रतीकचिन्ह 'मोड़' को अनदेखा किया और सिर्फ अपने संगठन के सिम्बॉल को ही प्रचारित किया ताकि समाज " संगठन के सिम्बॉल " को ही समाज का सिम्बॉल समझने के भ्रम में रहे. अब जब समाज के लोगों को माहेश्वरी समाज के निशान की जानकारी हो गई है और आम समाजबंधु इसका इस्तेमाल-प्रचार-प्रसार कर रहे है तब भी माहेश्वरी महासभा उसे अनदेखा कर रही है; महासभा का यह बर्ताव खुद को समाज से ऊपर समझनेवाला है. यह समाज के सम्मान के साथ खिलवाड़ है.

माहेश्वरी वंशोत्पत्ति दिवस "महेश नवमी समारोह" का आयोजन ज्यादातर स्थानों पर माहेश्वरी महासभा के स्थानीय संगठनों द्वारा किया जाता है. इसी बात का फायदा उठाकर माहेश्वरी महासभा और उनके पदाधिकारी महेश नवमी जैसे समस्त माहेश्वरी समाज के सबसे बड़े पर्व के समारोह में, इस समारोह के कार्यक्रम-पत्रिका में भी समाज के सिम्बॉल 'मोड़' के बजाय अपने खुद के संगठन के सिम्बॉल (कमलपुष्प पर शिवपिंड) का ही इस्तेमाल करके अपने संगठन के सिम्बॉल का प्रचार-प्रसार करके समाज का नहीं बल्कि अपने संगठन का गौरव बढ़ाने के फ़िराक में रहती है; जो की सर्वथा गलत है, अनुचित है. यह महेश नवमी के आयोजक होने का किया गया गलत इस्तेमाल है. आम माहेश्वरी समाजबंधु, माता-बहनें इस गड़बड़झाले को समझे और समाज के सम्मान में, उचित मंच पर अपनी बात कहने का साहस भी दिखाएँ. किसी को भी इस बात को भूलना नहीं चाहिए की समाज का कोई भी संगठन 'समाज' से ऊपर नहीं होता, समाज सर्वोपरि है ! समाज का सम्मान सर्वोपरि है !! समाज का निशान (सिम्बॉल) सर्वोपरि है !!!

स्थानीय स्तर पर माहेश्वरी प्रगति मंडल, महेश युवा मंच, माहेश्वरी युवक मंडल जैसे अनेको संगठनो द्वारा महेश नवमी के अवसर पर पौधारोपण, रक्तदान शिविर, स्वास्थ्य चिकित्सा शिबिर आदि अनेको समाजहितकारी/देशहितकारी कार्यक्रम आयोजित किये जाते है, इन कार्यक्रमों में, इनके निमंत्रण पत्रिका / कार्यक्रम पत्रिका में माहेश्वरी समाज के निशान (सिम्बॉल) 'मोड़' का जरूर इस्तेमाल करे और समाज के गौरव को, समाज की ऐतिहासिक-सांस्कृतिक पहचान को कायम रखने में अपना योगदान दें.

*अधिक जानकारी के लिए कृपया इस link पर click कीजिये > Which is the Symbol of Maheshwari Community

Maheshwari Samaj Ki Sthapana Kab Hui? Kisane ki?


प्रतिवर्ष, ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को "महेश नवमी" का उत्सव मनाया जाता है. महेश नवमी यह माहेश्वरी वंशोत्पत्ति दिवस है अर्थात इसी दिन माहेश्वरी समाज की वंशोत्पत्ति (माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति) हुई थी. इसीलिए माहेश्वरी समाज इस दिन को माहेश्वरी समाज के स्थापना दिवस के रूप में मनाता है.

ऐसी मान्यता है कि, भगवान महेश और आदिशक्ति माता पार्वति ने ऋषियों के शाप के कारन पत्थरवत् बने हुए 72 क्षत्रिय उमराओं को युधिष्टिर संवत 9 जेष्ट शुक्ल नवमी के दिन शापमुक्त किया और पुनर्जीवन देते हुए कहा की, "आज से तुम्हारे वंशपर हमारी छाप रहेगी, तुम “माहेश्वरी’’ कहलाओगे". भगवान महेशजी के आशीर्वाद से पुनर्जीवन और माहेश्वरी नाम प्राप्त होने के कारन तभी से माहेश्वरी समाज ज्येष्ठ शुक्ल नवमी (महेश नवमी) को 'माहेश्वरी उत्पत्ति दिन (स्थापना दिन)' के रूप में मनाता है. इसी दिन भगवान महेश और देवी महेश्वरी (माता पार्वती) की कृपा से माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति हुई इसलिए भगवान महेश और देवी महेश्वरी को माहेश्वरी समाज के संस्थापक मानकर माहेश्वरी समाज में यह उत्सव 'माहेश्वरी वंशोत्पत्ति दिन' के रुपमें बहुत ही भव्य रूप में और बड़ी ही धूम-धाम से मनाया जाता है. महेश नवमी का यह पर्व मुख्य रूप से भगवान महेश (महादेव) और माता पार्वती की आराधना को समर्पित है.

माहेश्वरी समाज ने और समाज के नेतृत्व ने समाज की संस्कृति, संस्कृति की प्राचीनता, समाज के इतिहास का क्या महत्व होता है, उन्हें क्यों संजोकर रखा जाता है इसके महत्व को ना समझते हुए इसे कभी महत्व ही नहीं दिया. दुर्भाग्य इसे कभी समझा ही नहीं गया की समाज की विरासत का, इतिहास का, धरोहरों का कोई महत्व भी होता है. इसीलिए आज माहेश्वरी समाज के पास अपनी विरासत, अपनी धरोहर, अपने इतिहास के बारे में बताने के लिए कुछ नहीं है. इसका मतलब यह नहीं है की कुछ है ही नहीं बल्कि इसका मतलब यह है की उनका संरक्षण-संवर्धन करने में ध्यान नहीं दिया गया है, उनके संरक्षण-संवर्धन की जिम्मेदारी को निभाया नहीं गया है. यही कारन है की आज ज्यादातर समाजजनों को यह भी मालूम नहीं है की आज से कितने वर्ष पूर्व हुई है माहेश्वरी वंशोत्पत्ति?

पीढ़ी दर पीढ़ी, परंपरागत रूप से माहेश्वरी समाज में महेश नवमी का पर्व बड़े ही श्रद्धा और आस्था से मनाया जाता रहा है लेकिन ज्यादातर माहेश्वरी समाजजन इसे नहीं जानते की हम महेश नवमी का यह कितवा पर्व मना रहे है? आज से कितने वर्ष पूर्व हुई है माहेश्वरी वंशोत्पत्ति? ज्यादातर माहेश्वरी समाजजन इसे नहीं जानते इसलिए प्रतिवर्ष महेश नवमी तो मनाई जाती रही है, मनाई जाती है लेकिन यह महेश नवमी कीतवी है इसका कोई उल्लेख होते हुए दिखाई नहीं देता है. परिणामतः यह साफ़ साफ़ स्पष्ट नहीं हो पाता है की माहेश्वरी समाज की संस्कृति कितनी प्राचीन है, माहेश्वरी समाज को कितने वर्षों का इतिहास है. आइये, जानते है की आज से कितने वर्ष पूर्व हुई है माहेश्वरी वंशोत्पत्ति?

माहेश्वरी समाज की वंशोत्पत्ति कैसे हुई इसके बारे में जो कथा परंपरागत रूप से, पीढ़ी दर पीढ़ी प्रचलित है उस कथा (देखें Link > माहेश्वरी वंशोत्पत्ति एवं इतिहास) में आये स्थानों के नाम से, पात्रों के नाम से, उनके कालखंड के माध्यम से, स्थानों की भौगोलिकता से भी माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के काल निर्धारण को जाना-समझा जा सकता है. 

(1) माहेश्वरी वंशोत्पत्ति कथा में महर्षि पराशर, ऋषि सारस्वत, ऋषि ग्वाला, ऋषि गौतम, ऋषि श्रृंगी, ऋषि दाधीच इन 6 ऋषियों का और उनके नामों का उल्लेख मिलता है जिन्हे भगवान महेशजी ने माहेश्वरी समाज का गुरु बनाया था. महाभारत के ग्रन्थ में भी इन ऋषियों का उल्लेख मिलता है, जैसे की- “महर्षि पराशर ने महाराजा युधिष्ठिर को ‘शिव-महिमा’ के विषय में अपना अनुभव बताया”. महाभारत तथा तत्कालीन ग्रंथों में कई जगहों पर पराशर, भरद्वाज आदि ऋषियों का नामोल्लेख मिलता है जिससे इस बात की पुष्टि होती है की यह ऋषि (माहेश्वरी गुरु) महाभारतकालीन है, और इस सन्दर्भ से इस बात की भी पुष्टि होती है की माहेश्वरी वंशोत्पत्ती महाभारतकाल में हुई है.

(2) माहेश्वरी वंशोत्पत्ति कथा में खण्डेलपुर राज्य का उल्लेख आता है. महाभारतकाल में लगभग 260 जनपद (राज्य) होने का उल्लेख भारत के प्राचीन इतिहास में मिलता है. इनमें से जो बड़े और मुख्य जनपद थे इन्हे महा-जनपद कहा जाता था. कुरु, मत्स्य, गांधार आदि 16 महा-जनपदों का उल्लेख महाभारत में मिलता है. इनके अलावा जो छोटे जनपद थे, उनमें से कुछ जनपद तो 5 गावों के भी थे तो कुछेक जनपद मात्र एक गांव के भी होने की बात कही गयी है. इससे प्रतीत होता है की माहेश्वरी उत्पत्ति कथा में वर्णित 'खण्डेलपुर' जनपद भी इन जनपदों में से एक रहा होगा.

राजस्थान के प्राचीन इतिहास की यह जानकारी की- ‘खंडेला’ राजस्थान स्थित एक प्राचीन स्थान है जो सीकर से 28 मील पर स्थित है, इसका प्राचीन नाम खंडिल्ल और खंडेलपुर था. यह जानकारी खण्डेलपुर के प्राचीनता की और उसके महाभारतकालीन अस्तित्व की पुष्टि करती है.खंडेला से तीसरी शती ई. का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है और यहाँ अनेक प्राचीन मंदिरों के ध्वंसावशेष हैं. “खंडेला सातवीं शती ई. तक शैवमत (शिव अर्थात भगवान महेश को माननेवाले जनसमूह) का एक मुख्य केंद्र था”, यह जानकारी खण्डेलपुर और उसके महाभारतकालीन अस्तित्व की पुष्टि करती है और यंहा पर सातवीं शती तक शिव (महेश) को माननेवाला समाज अर्थात माहेश्वरी समाज के होने की भी पुष्टि करती है. इसी तरह से माहेश्वरी वंशोत्पत्ति कथा में आये (वर्णित) बातों के सन्दर्भ के आधारपर यह स्पष्ट होता है की माहेश्वरी वंशोत्पत्ति द्वापरयुग के महाभारतकाल में हुई है.

(3) माहेश्वरी समाज में माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के काल (समय) के बारे में एक श्लोक के द्वारा बताया जाता है, वह श्लोक है-
आसन मघासु मुनय: शासति युधिष्ठिरे नृपते l
सूर्यस्थाने महेशकृपया जाता माहेश्वरी समुत्पत्तिः ll
अर्थ- जब सप्तर्षि मघा नक्षत्र में थे, युधिष्ठिर राजा शासन करता था, सूर्य के स्थान पर अर्थात राजस्थान प्रान्त के लोहार्गल में (लोहार्गल- जहाँ सूर्य अपनी पत्नी छाया के साथ निवास करते है, वह स्थान जो की माहेश्वरीयों का वंशोत्पत्ति स्थान है), भगवान महेशजी की कृपा (वरदान) से; कृपया - कृपा से, माहेश्वरी उत्पत्ति हुई.

उपरोक्त श्लोक से इस तथ्य की पूरी तरह से पुष्टि होती है की माहेश्वरी वंशोत्पत्ति महाभारतकाल में हुई है जब धनुर्धारी अर्जुन के बड़े भाई युधिष्ठिर एक राजा के रूप में शासन कर रहे थे. माहेश्वरी समाज में परंपरागत रूप से, पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही मान्यता के अनुसार माहेश्वरी समाज की वंशोत्पत्ति की जो तिथि और संवत बताया जाता है- "युधिष्ठिर सम्वत 9, जेष्ठ शुक्ल नवमी" से भी इस बात की पुष्टि होती है की माहेश्वरी वंशोत्पत्ति महाभारतकाल (द्वापरयुग) में हुई है.

आसन मघासु मुनय:
मुनया (मुनि) अर्थात आकाशगंगा के सात तारे जिन्हे सप्तर्षि कहा जाता है. ब्राह्मांड में कुल 27 नक्षत्र हैं. सप्तर्षि प्रत्येक नक्षत्र में 100 वर्ष ठहरते हैं. इस तरह 2700 साल में सप्तर्षि एक चक्र पूरा करते हैं. पुरातनकाल में किसी महत्वपूर्ण अथवा बड़ी घटना का समय या काल दर्शाने के लिए 'सप्तर्षि किस नक्षत्र में है या थे' इसका प्रयोग किया जाता था. माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा गया है की सप्तर्षि उस समय मघा नक्षत्र में थे. द्वापर युग के उत्तरकाल (जिसे महाभारतकाल कहा जाता है) में भी सप्तर्षि मघा नक्षत्र में थे तो इस तरह से बताया गया है की माहेश्वरी वंशोत्पत्ति द्वापरयुग के उत्तरकाल में अर्थात महाभारतकाल में हुई है. श्लोक के 'शासति युधिष्ठिरे नृपते' इस पद (शब्द समूह) से इस बात की पुष्टि होती है की यह समय महाभारत काल का ही है.

शासति युधिष्ठिरे नृपते
पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर का इन्द्रप्रस्थ के राजा के रूप में राज्याभिषेक 17-12-3139 ई.पू. के दिन हुआ, इसी दिन युधिष्ठिर संवत की घोषणा हुई. उसके 5 दिन बाद उत्तरायण माघशुक्ल सप्तमी (रथ सप्तमी) को हुआ, अतः युधिष्ठिर का राज्याभिषेक प्रतिपदा या द्वितीया को था. युधिष्ठिर के राज्यारोहण के पश्चात चैत्र शुक्ल एकम (प्रतिपदा) से 'युधिष्ठिर संवत' आरम्भ हुवा. महाभारत और भागवत के खगोलिय गणना को आधार मान कर विश्वविख्यात डॉ. वेली ने यह निष्कर्ष दिया है कि कलयुग का प्रारम्भ 3102 बी.सी. की रात दो बजकर 20 मिनट 30 सेकण्ड पर हुआ था. यह बात उक्त मान्यता को पुष्ट करती है की भारत का सर्वाधिक प्राचीन युधिष्ठिर संवत की गणना कलियुग से 40 वर्ष पूर्व से की जाती है. युधिष्ठिर संवत भारत का प्राचीन संवत है जो 3142 ई.पू. से आरम्भ होता है. हिजरी संवत, विक्रम संवत, ईसवीसन, वीर निर्वाण संवत (महावीर संवत), शक संवत आदि सभी संवतों से भी अधिक प्राचीन है 'युधिष्ठिर संवत'. माहेश्वरी वंशोत्पत्ति संवत (वर्ष) है- 'युधिष्ठिर संवत 9' अर्थात माहेश्वरी वंशोत्पत्ति ई.पू. 3133 में हुई है. कलियुगाब्द (युगाब्द) में 31 जोड़ने से, वर्तमान विक्रम संवत में 3076 अथवा वर्तमान ई.स. में (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा/गुड़ी पाड़वा/भारतीय नववर्षारंभ से आगे) 3133 जोड़ने से माहेश्वरी वंशोत्पत्ति वर्ष आता है. वर्तमान में ई.स. 2018 चल रहा है. वर्तमान ई.स. 2018 + 3133 = 5151 अर्थात माहेश्वरी वंशोत्पत्ति आज से 5151 वर्ष पूर्व हुई है.

आज ई.स. 2018 में युधिष्ठिर संवत 5160 चल रहा है. माहेश्वरी वंशोत्पत्ति युधिष्ठिर संवत 9 में हुई है तो इसके हिसाब से माहेश्वरी वंशोत्पत्ति आज से 5151 वर्ष पूर्व हुई है. अर्थात "महेश नवमी उत्सव 2018" को माहेश्वरी समाज अपना 5151 वा वंशोत्पत्ति दिन मना रहा है.

माहेश्वरी समाज में युधिष्ठिर सम्वत का है प्रचलन 

समयगणना के मापदंड (कैलेंडर वर्ष) को 'संवत' कहा जाता है. किसी भी राष्ट्र या संस्कृति द्वारा अपनी प्राचीनता एवं विशिष्ठता को स्पष्ट करने के लिए किसी एक विशिष्ठ कालगणना वर्ष/संवत (कैलेंडर) का प्रयोग (use) किया जाता है. आज के आधुनिक समय में सम्पूर्ण विश्व में ईसाइयत का ग्रेगोरीयन कैलेंडर प्रचलित है. इस ग्रेगोरीयन कैलेंडर का वर्ष 1 जनवरी से शुरू होता है. भारत में कालगणना के लिए युधिष्ठिर संवत, युगाब्द संवत्सर, विक्रम संवत्सर, शक संवत (शालिवाहन संवत) आदि भारतीय कैलेंडर का प्रयोग प्रचलन में है. भारतीय त्योंहारों की तिथियां इन्ही भारतीय कैलेंडर से बताई जाती है, नामकरण संस्कार, विवाह आदि के कार्यक्रम पत्रिका अथवा निमंत्रण पत्रिका में भारतीय कैलेंडर के अनुसार तिथि और संवत (कार्यक्रम का दिन और वर्ष) बताने की परंपरा है.

माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति जब हुई तब कालगणना के लिए युधिष्ठिर संवत प्रचलन में था. मान्यता के अनुसार माहेश्वरी वंशोत्पत्ति युधिष्ठिर संवत 9 में ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष के नवमी को हुई है. इसीलिए पुरातन समय में माहेश्वरी समाज में कालगणना के लिए 'युधिष्ठिर संवत' का प्रयोग (use) किया जाता रहा है. वर्तमान समय में देखा जा रहा है की माहेश्वरी समाज में युधिष्ठिर संवत के बजाय विक्रम सम्वत या शक सम्वत का प्रयोग किया जा रहा है. विक्रम या शक सम्वत के प्रयोग में हर्ज नहीं है लेकिन इससे माहेश्वरी समाज की विशिष्ठता और प्राचीनता दृष्टिगत नहीं होती है. जैसे की यदि युधिष्ठिर संवत का प्रयोग किया जाता है तो, वर्तमान समय में चल रहे युधिष्ठिर संवत (वर्ष) में से 9 वर्ष को कम कर दे तो माहेश्वरी वंशोत्पत्ति वर्ष मिल जाता है. आज इ.स. 2018 में युधिष्ठिर संवत 5160 चल रहा है. 5160 में से 9 वर्ष को कम कर दें तो झट से दृष्टिगत होता है की माहेश्वरी वंशोत्पत्ति आज से 5151 वर्ष पूर्व हुई है. इसलिए माहेश्वरी समाज को अपनी पुरातन परंपरा को कायम रखते हुए "युधिष्ठिर संवत" का ही प्रयोग करना चाहिए.

माहेश्वरी संस्कृति की असली पहचान युधिष्ठिर संवत से होती है. माहेश्वरी समाज की सांस्कृतिक पहचान है युधिष्ठिर संवत. इसलिए माहेश्वरी समाज के महेश नवमी आदि सांस्कृतिक पर्व-उत्सव, बच्चों के नामकरण-विवाह आदि संस्कार, गृहप्रवेश तथा उद्घाटन, वर्धापन आदि सामाजिक व्यापारिक-व्यावसायिक कार्यों के अनुष्ठान, इन सबका दिन बताने के लिए विक्रम संवत, शक संवत या अन्य किसी संवत का नहीं बल्कि युधिष्ठिर संवत का उल्लेख किया जाना चाहिए, कार्यक्रमों के कार्यक्रम पत्रिका, आमंत्रण/निमंत्रण पत्रिका में युधिष्ठिर संवत का ही प्रयोग करना चाहिए. (जैसे की- महेश नवमी उत्सव 2018 मित्ति ज्येष्ठ शु. ९ युधिष्ठिर संवत ५१६० गुरूवार, दि. 21 जून 2018). जैसे "ऋषि पंचमी के दिन रक्षाबंधन, विवाह की विधियों में बाहर के फेरे (बारला फेरा)" माहेश्वरी समाज की विशिष्ठ पहचान को दर्शाता है वैसे ही "युधिष्ठिर संवत" का प्रयोग (use) किया जाना माहेश्वरी समाज की विशिष्ठ पहचान को दर्शाता है. हम आशा करते है की माहेश्वरी समाज में युधिष्ठिर संवत के प्रचलन की खंडित परंपरा की कड़ी को पुनः जोड़ा जायेगा, माहेश्वरी समाज की विशिष्ठ पहचान और गौरव को बढ़ाने लिए समाज के सभी संगठन और समस्त समाजजन सजग बनकर इसमें अपना योगदान देंगे. जय महेश !

(योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी द्वारा लिखित पुस्तक-
"माहेश्वरी वंशोत्पत्ति एवं इतिहास" से साभार)



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माहेश्वरी, बस नाम ही काफी है !


3133 ईसा पूर्व में अर्थात द्वापर युग के उत्तरार्ध में, महाभारतकाल में देवाधिदेव महेशजी और देवी महेश्वरी (पार्वती) के वरदान से माहेश्वरी वंश (माहेश्वरी समाज) की उत्पत्ति हुई. इसे ठीक से समझे तो कलियुग के ठीक पहले माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति हुई है. मित्रों, कलियुग अनीति, अनाचार, अन्याय की प्रधानतावाला अर्थात अधर्म की प्रधानतावाला युग माना जाता है. चराचर जगत के निर्माणकर्ता, पालनहार और संहारकर्ता भगवान् महेशजी और देवी पार्वती द्वारा घोर अनाचार और अनीतिवाले कलियुग में धर्म की हानि रोकने के लिए, अधर्म के कारन होनेवाले विश्व के विनाश को बचाने के लिये दैवीय अर्थात महा ईश्वरी (माहेश्वरी) वंश की उत्पत्ति की गई है; सदाचारी, न्यायपूर्ण, नीतिपूर्ण जीवन जीने का आदर्श लोगों के सामने रहे इसीलिए माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति की गई है. लोगों के सामने एक आदर्श और धर्माधिष्ठित जीवनपद्धति को रखने के लिए माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति हुई है.

माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के समय भगवान महेशजी ने कहा था की- "तुम दिव्य गुणों को धारण करनेवाले होंगे. द्यूत, मद्यपान और परस्त्रीगमन इन त्रिदोषों से मुक्त होंगे. जगत में धन-सम्पदा के धनि के रूप में तुम्हारी पहचान होगी. धनि और दानी के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी. श्रेष्ठ कहलावोगे" (*आगे चलकर श्रेष्ठ शब्द का अपभ्रंश होकर 'सेठ' कहा जाने लगा. अर्थात अधिक धन-सम्पदा के स्वामी होने के कारन नहीं बल्कि इन दिव्य गुणों को धारण करनेवाले होने के कारन माहेश्वरीयों को श्रेष्ठ/सेठ कहा जाता है). भगवान महेशजी का माहेश्वरी समाज को, माहेश्वरीयों को दिया गया यह वरदान और आदेश भी है की माहेश्वरी द्यूत अर्थात किसी भी तरह के जुआ/जुगार खेलने से, मद्यपान अर्थात किसी भी तरह के नशीले पदार्थ के सेवन से और परस्त्रीगमन से मुक्त रहेंगे, वे इन तीन दोषों (बुराइयों) में लिप्त नहीं होंगे. इसी के कारन 'माहेश्वरी' दिव्य गुणों को धारण करनेवाले कहलाते है, माहेश्वरी (महा+ईश्वरी) अर्थात दैवीय/दिव्य कहलाते है, श्रेष्ठ कहलाते है. कलियुग में माहेश्वरीयों को 'श्रेष्ठ' माना जाता है, श्रेष्ठ (सेठ) कहा जाता है (देखें- Maheshwari - Origin and brief History). आज के समय में ज्यादातर समाजबंधुओं को, युवाओं को, नई पीढ़ी को माहेश्वरी वंशोत्पत्ति कब हुई, कहाँ हुई, कैसे हुई, क्यों हुई, तब क्या क्या हुवा इसकी तथा माहेश्वरी समाज के इतिहास की समुचित जानकारी ही नहीं है; परिणामतः उन्हें हम माहेश्वरीयों की उत्पत्ति किस महान उद्द्येश्य से हुई है इसका बोध ही नहीं है. हमें लगता है की "माहेश्वरी वंशोत्पत्ति एवं इतिहास" की जानकारी समाज के हरएक घटक तक पहुँचाने के लिए माहेश्वरी समाज के लिए कार्य करनेवाले संगठनों को कोई प्रचार अभियान चलाना चाहिए. सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा समय समयपर इसको समाज के सामने रखा जाना चाहिए.

भगवान् महेशजी द्वारा हम माहेश्वरीयों को, माहेश्वरी समाज को सौपा गया यह एक बहुत ही गौरवपूर्ण दायित्व है. लेकिन आज हम हमारे इस गौरव को, हमारे दायित्व को, हमारी महत्ता को भूलते जा रहे है. आज स्थिति ऐसी बनती जा रही है की- एक ज़माने में आम लोगबाग माहेश्वरी समाज का, उनके जीवनपद्धति का आदर्श सामने रखकर, प्रेरणा लेकर अपने खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार-व्यवहार और जीवनपद्धति में बदलाव लाते थे. आम लोगबाग माहेश्वरीयों जैसे जीवन जीने की कोशिश करते थे लेकिन आज इसका उलटा होता दिखाई दे रहा है. हमें लगता है समाज को, समाज में के बुद्धिजीवियों को, प्रबुद्ध समाजबंधुओं को, समाज के सामाजिक नेतृत्व को, हम सबको इसपर जरूर सोचना चाहिए, गंभीरता से सोचना चाहिए. हम सभी को इस बात को सदैव याद रखना चाहिए की भगवान् महेशजी और देवी पार्वती द्वारा माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति किस उद्देश्य से हुई थी. क्या हम हमें मिले उस अद्वितीय गौरव को कायम रख पा रहे है? भगवान् महेशजी और देवी पार्वती द्वारा हमें मिले दायित्व को निभा रहे है? मित्रों, समाजबंधुओं, माताओ और बहनो, ध्यान रहे की "माहेश्वरी" सिर्फ एक नाम नहीं है बल्कि एक ब्रांड है; और समाज का हरएक व्यक्ति, हरएक माहेश्वरी इस ब्रांड का "ब्रांड एम्बेसडर" है.

माहेश्वरीयों के अच्छे "संस्कार" ही माहेश्वरीयों को महान बनाते है, जीवन में सर्वोच्च सफलता दिलाते है। अच्छे संस्कारों, अच्छे गुणों को धारण करनेवाले होने के कारन ही माहेश्वरीयों को श्रेष्ठ (सेठ) कहा जाता है। "माहेश्वरी" सिर्फ एक शब्द या नाम नहीं है बल्कि सदाचार का, सेवा का, उदारता का, ईमानदारी का, मेहनत का, विश्वसनीयता का एक प्रतिष्ठित "ब्रांड" है, सिम्बॉल है।




जानिए माहेश्वरी अखाड़ा के बारेमें... क्या है विरासत, मुख्य उद्देश्य और कार्य | Maheshwari Akhada | Mahesh Navami | Maheshwari Samaj

माहेश्वरी अखाड़ा (जिसका आधिकारिक नाम "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा" है) माहेश्वरी समुदाय का सर्वोच्च धार्मिक गुरुपीठ है, माहेश्वरी समाज की शीर्ष/सर्वोच्च धार्मिक-आध्यात्मिक प्रबंधन संस्था है. वैसे तो माहेश्वरी गुरुपीठ की परंपरा 5000 वर्ष से भी ज्यादा पुरातन है. जब इसा पूर्व 3133 में, ज्येष्ठ शुक्ल नवमी के दिन भगवान महेश जी ने माहेश्वरी समाज की वंशोत्पत्ति/उत्पत्ति की थी, इसी दिन को माहेश्वरी समुदाय माहेश्वरी समाज के स्थापना दिवस के रूपमें तथा महेश नवमी के नाम से मनाता है. तब माहेश्वरी समुदाय के स्थापना के साथ साथ ही भगवान महेश जी ने माहेश्वरी समाज को मार्गदर्शित करने का दायित्व 6 गुरुओं (ऋषियों) को सौपा था; इन्ही 6 गुरुओं द्वारा माहेश्वरी गुरुपीठ परंपरा की शुरुआत की गई थी लेकिन समय चक्र में यह माहेश्वरी गुरुपीठ परंपरा विघटित हो गई. वर्ष 2008 में माहेश्वरी समाज के इस सर्वोच्च गुरुपीठ को कानूनी एवं आधिकारिक तौर पर "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा" के नाम से पुनः स्थापित किया गया. आधिकारिक स्थापना के समय इसका नाम "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा" दर्ज किया गया था, लेकिन यह "माहेश्वरी अखाड़ा" के नाम से प्रसिद्ध है, लोकप्रिय है.

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माहेश्वरी अखाड़ा (दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा) के पीठाधिपति "महेशाचार्य" की उपाधि से अलंकृत होते है. महेशाचार्य पद शंकराचार्य और पोप के समकक्ष है. केवल माहेश्वरी समाज के सर्वोच्च गुरुपीठ "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा" के अध्यक्ष (पीठाधिपति) ही "महेशाचार्य" की उपाधि से अलंकृत होने के अधिकारी है / आधिकारिक रूप से अधिकृत है. माहेश्वरी गुरुपीठ के प्रथम पीठाधिपति महर्षि पराशर थे इसलिए महर्षि पराशर "आदि महेशाचार्य" है. वर्तमान में योगी प्रेमसुखानंद माहेश्वरी "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा (माहेश्वरी अखाड़ा)" के पीठाधिपति और महेशाचार्य हैं.

माहेश्वरी अखाड़े के विधान के अनुसार इस अखाड़े का मुख्य कार्य धर्म की, माहेश्वरी संस्कृति की रक्षा करना है. माहेश्वरी अखाड़े का मुख्य उद्देश्य माहेश्वरी समाज को संगठित करना, समृद्ध करना, सुदृढ़ करना है. समाज की संस्कृति, सांस्कृतिक पहचान बनाये रखना एवं सुव्यवस्थित प्रबंधन के माध्यम से समाज में एकता को बढ़ाना जिससे की समाज का सर्वांगीण विकास हो यह अखाड़े का प्रमुख उद्देश्य है. आवश्यक होने पर सांस्कृतिक, सामाजिक इत्यादि से सम्बन्धित कार्य भी अखाड़े के माध्यम से किये जाने का प्रावधान है. माहेश्वरी समाज, धर्म और राष्ट्र का गौरव बढ़ाने तथा इनके सर्वांगीण प्रगति और संरक्षण-संवर्धन के लिए कार्य करना माहेश्वरी अखाड़े का मुख्य उद्देश्य है.

For more info of Maheshwari Akhada please click this link > What is Maheshwari Akhada? Know About Maheshwari Akhada


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क्या है माहेश्वरी अखाड़ा? जानिए माहेश्वरी अखाड़े के बारेमें...

संक्षेप में कहें तो, माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के अनुसार माहेश्वरीयों/माहेश्वरी समाज को धर्म के मार्ग पर चलने के लिए मार्गदर्शन करनेका दायित्व भगवान महेशजी ने ऋषि पराशर, सारस्वत, ग्वाला, गौतम, श्रृंगी, दाधीच इन छः (6) ऋषियों को सौपा. कालांतर में इन गुरुओं ने महर्षि भारद्वाज को भी माहेश्वरी गुरु पद प्रदान किया जिससे माहेश्वरी गुरुओं की संख्या सात हो गई जिन्हे माहेश्वरीयों में सप्तर्षि कहा जाता है. इन सप्तगुरुओं ने माहेश्वरी समाज के प्रबंधन और मार्गदर्शन का कार्य सुचारू रूप से चले इसलिए एक 'गुरुपीठ' को स्थापन किया जिसे "माहेश्वरी गुरुपीठ" कहा जाता था. इस माहेश्वरी गुरुपीठ के इष्ट देव 'महेश परिवार' (भगवान महेश, पार्वती, गणेश आदि...) थे. सप्तगुरुओं ने माहेश्वरी समाज के प्रतिक-चिन्ह 'मोड़' (जिसमें एक त्रिशूल और त्रिशूल के बीच के पाते में एक वृत्त तथा वृत्त के बीच ॐ (प्रणव) होता है) और ध्वज का सृजन किया (देखें Link > Maheshwari Religious Symbol – Mod). ध्वज को "दिव्य ध्वज" कहा गया. दिव्य ध्वज (केसरिया रंग के ध्वजा पर अंकित मोड़ का निशान) माहेश्वरी समाज की ध्वजा बनी (देखें Link > Maheshwari Flag). गुरुपीठ के पीठाधिपति “महेशाचार्य” की उपाधि से अलंकृत थे, इसलिए उन्हें "महेशाचार्य" कहा जाता था (देखें Link > आदि महेशाचार्य). "महेशाचार्य" यह माहेश्वरी समाज का सर्वोच्च गुरु पद माना जाता है. इस माहेश्वरी गुरुपीठ के माध्यम से समाजगुरु माहेश्वरी समाज को मार्गदर्शित करते थे. माना जाता है की वंशोत्पत्ति के बाद कुछ शतकों तक यह गुरुपीठ परंपरा चलती रही, लेकिन समय के प्रवाह में माहेश्वरी गुरुपीठ की यह परंपरा खंडित हो गई (इसी कारन से लगभग पिछले चार हजार वर्षों से माहेश्वरी समाज के गुरुपीठ के बारे में ना किसी ने कुछ सुना ना ही किसी को इसकी जानकारी है). यह माहेश्वरीयों का, माहेश्वरी समाज का दुर्भाग्य है की जाने-अनजाने में माहेश्वरी समाज अपने गुरुपीठ और गुरूओंको भूलते चले गए. परिणामतः समाज को उचित मार्गदर्शन करनेवाली व्यवस्था ही समाप्त हो गई जिससे समाज की बड़ी हानि हुई है और आज भी हो रही है. माहेश्वरी समाजजनों को समाजहित में इस बात को गंभीरता से समझते हुए सही और उचित दिशा में कदम बढ़ाने चाहिए.

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भारतीय नववर्ष, गुड़ी पाड़वा 2018 की हार्दिक शुभकामनाएं !


18 मार्च 2018 से चैत्र नवरात्रि के शुरु होते ही भारतीय नववर्ष की भी शुरुआत हो गई है. "चैत्र शुक्ल १" इस दिन को सनातन धर्म को माननेवाले लोग "गुढ़ी पाड़वा" (कहीं कहीं पर इसे 'गुड़ी पड़वा' भी कहा जाता है) के नाम से भारतीय नववर्षारंभ अर्थात नए वर्ष के आरम्भ के रूपमें बड़े ही धूमधाम से मनाते हैं. गुढ़ी का मतलब होता है विजय, गुढ़ी विजय की प्रतिक है और पाड़वा का मतलब होता है चैत्र माह के शुक्ल पक्ष का पहला दिन. सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार नवरात्रि या गुढ़ी पाड़वा के दिन कोई भी शुभ कार्य बिना किसी संकोच के प्रारम्भ किया जा सकता है. किसी भी शुभकार्य के लिए अथवा नए कार्य की शुरुवात करने के लिए गुढ़ी पाड़वा को सबसे शुभ, सबसे अच्छा दिन माना जाता है.

यह भारतीय नववर्ष आपके परिवार में खुशहाली और समृद्धि बढ़ानेवाला रहे. आप सभी को भारतीय नववर्ष, गुढ़ी पाड़वा 2018 (युधिष्ठिर सम्वत 5160) की हार्दिक शुभकामनाएं !

May this Bharatiy New Year brings in Happiness and prosperity in your family. Happy Gudi Padwa 2018 !

पान क्यों सड़ा? घोडा क्यों अड़ा? रोटी क्यों जली? माहेश्वरी समाज की प्रगति क्यों रुकी?


मित्रों, कुछ दिनों पहले माहेश्वरी अखाड़े के पीठाधिपति योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी से हुई बातचीत में उन्होंने ये पंक्तियाँ कहते हुए, इसका कारन बताते हुए कहा की- पान इसलिए सड़ गया क्योंकि उसे बदला नहीं गया और घोडा इसलिए अड़ा क्योंकि उसपर लगाम नहीं लगायी गयी, रोटी इसलिए जल गयी क्योंकि उसे पलटा नहीं गया... उर्दू शायर, ग़ालिब और खुसरो द्वारा कही इन पंक्तियों में आगे एक और कड़ी को जोड़ते हुए उन्होंने कहा की- माहेश्वरी समाज की प्रगति क्यों रुकी? क्यों माहेश्वरी समाज की विशिष्ठ पहचान ख़त्म होती जा रही है? क्योंकि, बीते 100 वर्षों से समाज के नेतृत्व को बदला नहीं गया. 100 वर्षों से निरंतर एक ही संस्था द्वारा माहेश्वरी समाज का नेतृत्व किया जा रहा है इसके कारन ! कितना प्रासंगिक है उनका ये कहना, आइये समझते है...

राष्ट्र हो या कोई समाज या संप्रदाय, पांच दस वर्षों के बाद, नेतृत्व को पलटना चाहिए, सरकारे बदलनी चाहिए और उनपे लगाम लगायी जानी चाहिए... नहीं तो वे बेकार, निष्क्रिय हो जाएंगी तथा उन्हें सत्ता का, अहंकार का नशा हो जायेगा. इसलिए समय समयपर नेतृत्व में परिवर्तन होना आवश्यक है. कोई राष्ट्र हो या कोई समाज ये उनके हित में बहुत लाभकारी है की हर पांच दस वर्षो में नेतृत्व हस्तानांतरित होता रहे. नेतृत्व में परिवर्तन होता रहे यही प्रगति का मूलमंत्र है, यही समाज के हित में है.

हम माहेश्वरी समाज की ही बात करें तो बीते 100 वर्षों से भी ज्यादा समय से माहेश्वरी समाज का नेतृत्व 'माहेश्वरी महासभा' यह संगठन कर रहा है. जैसा की ऊपर कहा गया है की "हर पांच दस वर्षों में नेतृत्व बदलना चाहिए, नेतृत्व परिवर्तन होना चाहिए... नहीं तो वे बेकार, निष्क्रिय हो जाते है तथा उन्हें सत्ता का, अहंकार का नशा हो जाता है, नेतृत्व करते हुए आम लोगों के लिए उनकी जो जिम्मेदारियां होती है वे उसे भूल जाते है, आम लोगों से उनका जुड़ाव और संपर्क समाप्त हो जाता है" बिलकुल यही स्थिति माहेश्वरी महासभा की हो गई है. आज वास्तविक स्थिति यह है की- माहेश्वरी महासभा यह संगठन समस्त माहेश्वरी समाज का नेतृत्व करता है यह बात किसी तत्थ्य, प्रमाण, तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतर रही है. साबित हो गया है की माहेश्वरी महासभा द्वारा माहेश्वरी समाज का नेतृत्व करने का सिर्फ दिखावा किया जा रहा है. इस दिखावे के नेतृत्व के चलते समाज में एक अराजक जैसी स्थिति बन गई है, समाज में कोई किसी की नहीं सुन रहा है, प्रगति रुक गई है, समाज हरएक क्षेत्र में पिछड़ गया है. समाज शक्तिहीन हो गया है. माहेश्वरी महासभा के कई जिला-तहसील स्तर के पदाधिकारियों ने व्यक्तिगत बातचीत में इसे माना है की वे भले ही खुद को जिले या तहसील के माहेश्वरी समाज का नेता कहते है लेकिन उनकी कही बात को पूरा समाज तो क्या एक-चौथाई समाज भी नहीं मानता है, नहीं मानेगा. इसे ही अराजक वाली स्थिति कहते है. ऐसी स्थिति में किसी भी समाज में ना एकता बन पाती है ना वह समाज प्रगति के रास्ते पर आगे बढ़ सकता है. उसकी प्रगति रुक जाती है, गौरव समाप्त हो जाता है. आज माहेश्वरी महासभा के नेतृत्व में, पुरे देशभर के माहेश्वरी समाज में लगभग ऐसी ही स्थिति है इसे कौन नकार सकता है. सोचो यदि हमारे देश में नेतृत्व परिवर्तन नहीं होता तो कैसे कांग्रेस जाती और कैसे देश को मोदी जैसा सक्रीय, दूरदर्शी नेतृत्व मिलता जो दुनियाभर में देश के गौरव को पुनर्स्थापित कर रहा है, जिसने देश के गौरव को बढ़ाया है, प्रगति को रफ़्तार दी है, जिसके नेतृत्व में देशवासियों के मन में अपने देश के लिए स्वाभिमान जगा है. इसलिए समाजजनों को, समाज के लोगों को ये ध्यान रखना चाहिए की समय समयपर, हर पांच दस वर्षो में नेतृत्व हस्तानांतरित होता रहे, नेतृत्व में परिवर्तन होता रहे यही प्रगति का मूलमंत्र है, यही समाज के हित में है.

समाज के लिए अपना समस्त जीवन समर्पित कर देनेवाले योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी महाराज के मार्गदर्शन में समाज को वास्तविक नेतृत्व देने के लिए एक पहल हुई. समाज के लिए, नेतृत्व के लिए एक सुव्यवस्थित और सर्वसमावेशक व्यवस्था (सिस्टम) को प्रस्तुत करते हुए महासंघ कार्यरत हुवा, सक्रीय हुवा. "माहेश्वरी महासंघ" की सक्रियता के कारन बीते कुछ दिनों में समाज के नेतृत्व को लेकर, संगठनों के कामों को लेकर समस्त माहेश्वरी समाज में जोरशोर से चर्चाएं की जा रही है. सोशल मिडिया के माध्यम से शुरू हुई यह चर्चा आज समाजबंधुओं के ड्रॉइंगरूम में, इतनाही नहीं जहाँ समाज के चार लोग इकठ्ठा हो जाते है वहां पर भी, समाज के समारोहों में भी होती दिखाई दे रही है. इससे माहेश्वरी महासभा में भी उथल-पुथल मची हुई है.

बीते 100 सालों से समाज का जो नेतृत्व महासभा के हाथों में है कही वह हाथ से निकल न जाये इसके लिए महासभा भीतर ही भीतर सक्रीय हुई है. समाज से उठे सवालों पर महासभा सार्वजनिक रूप से कोई आधिकारिक उत्तर तो नहीं दे पा रही है लेकिन अपने संगठन के पदाधिकारियों के नेटवर्क के माध्यम से समाज में बेबुनियाद अफवाहें, और समाज को कन्फ्यूज करनेवाली बातें फ़ैलाने का सिलसिला महासभा ने शुरू कर दिया है. महासभा द्वारा कही जा रही बातों में समाज को यह डर बताया जा रहा है की महासभा का नेतृत्व नहीं रहेगा तो समाज एकदम से नेतृत्वहीन हो जायेगा, फिर समाज का क्या होगा? इसपर हम कहना चाहते है की एक सामान्य भौतिकी नियम है की खालीपन या रिक्तता कभी भी नहीं रहती है, निश्चित रूप से समाज इतना सक्षम और समझदार है की बहुत कम समय में समाज के लिए सक्षम नेतृत्व का निर्माण समाज स्वयं कर लेगा, माहेश्वरी महासंघ ने समस्त माहेश्वरी समाज के नेतृत्व के लिए समाज के सामने खुद को एक सक्षम विकल्प/पर्याय के रूप में रखा भी है. महासभा समाज को नेतृत्वहीनता होने का डर दिखाकर डराए नहीं. बल्कि इसके बजाय महासभा उनके अपने नेतृत्व को महासंघ से बेहतर सिद्ध करने के लिए समाज के सामने (देशभर में) महासभा और महासंघ को अपनी अपनी बात रखने के लिए कार्यक्रमों का आयोजन करें. समाज महासभा और महासंघ दोनों की ही बात को सुनेगा और फैसला करेगा की समाज का नेतृत्व करने के लिए बेहतर कौन है, 'महासभा या महासंघ' किसके नेतृत्व में समाज प्रगति कर सकता है, किसके नेतृत्व में समाज का गौरव बढ़ेगा. महासभा ऐसे चर्चात्मक कार्यक्रमों को आयोजित करें और फिर समाज तय करें की क्या करना है. हालाँकि महासभा की नाकामयाबी खुलने के डर से, महासभा ने फुलाया हुवा भ्रम का गुब्बारा फूटने के डर से महासभा ऐसे कार्यक्रम आयोजित करेगी इसकी संभावना कम ही है. समाज के सामने दूध का दूध और पानी का पानी हो जाये इसलिए महासभा को (महासभा को इसलिए चूँकि वह आज/वर्तमान समय में समस्त माहेश्वरी समाज का नेतृत्व करने का दावा करती है) महासभा और महासंघ की आमने सामने की चर्चा के कार्यक्रम आयोजित करने की पहल करनी चाहिए; लेकिन इसकी संभावना कम ही है की महासभा ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन करें. हरएक शहर में स्वतंत्ररूप से कार्य करनेवाले स्थानीय माहेश्वरी संघठन भी है लेकिन महासभा के दबाव के कारन उनसे भी यह संभावना कम है की वे ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन करेंगे. समाज के लिए समर्पित (किसी एक संगठन के लिए नहीं) एक समाचारपत्रिका होने के नाते हमें लगता है की महासभा और महासंघ इन दोनों को समाज के सामने अपनी अपनी बातें, अपनी अपनी भूमिका रखने का मौका मिलना चाहिए. जो गलत होगा समाज उसे नकार देगा, जो सही होगा समाज उसको समाज का नेतृत्व देगा; यही समाज के हित में है; बाकी समाज ना सिर्फ सब कुछ करने में समर्थ है, सक्षम है बल्कि सर्वोपरि भी है.

जय महेश !

Masik Divy Maheshwari Logo


बुरा ना मानो होली है


महासभा तो बस कुछ लोगों की टोली है
बुरा ना मानो होली है


नए नए, भांति भांति के ट्रस्ट बनाकर
भर रही अपनी झोली है
महासभा बस कुछ लोगों की टोली है
बुरा ना मानो होली है

अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे

युवाओं ने समाजबंधुओं ने जोर लगाया
समाज में एक नई चेतना जगाई है
अनजान बन बैठी है माहेश्वरी महासभा
जाग भी रही है या सो गई है


उम्मीद बनकर आया महासंघ
जैसे समाज का भाजपा
माहेश्वरी समाज की कॉंग्रेस पार्टी
बन गई है महासभा


सोशल मिडिया में तो
महासंघ जबरदस्त है
लेकिन महासभा की
चालों के आगे पस्त है


प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी
सोशल मिडिया पर तो छाये हुए है
बाकि है अभी मुँह दिखाई
क्यों अमावस के चाँद बने हुए है


महामंत्री संदीप काबरा व्यस्त बड़े रहते है
हर दिन ढूंढ ढूंढ, देते है शुभकामनाएं...
कहीं भूल तो नहीं गए अपना असली काम
तो फिर क्यों ये समाज के काम ना आये


सोमनाथ की धरतीपर खूब बोली
जोर से बोली माहेश्वरी महासभा
प्री-वेडिंग फोटोशूट के बंदिश पर
अब बोलेंगे,
तब बोलेंगे, सोचते रहे लोग
लेकिन चुप्पी साध ली महासभा ने
समाज के असली मसलों पर


होली है भाई होली है
बुरा ना मानो होली है

Which is the Symbol of Maheshwari Community


सामूहिक जीवन में प्रतीकों का बड़ा महत्व है. ये प्रतिक (symbol) एक तरह से समूह की पहचान हुआ करते हैं फिर वह चाहे किसी संस्था का हो, समाज का, देश का या फिर धर्म का प्रतिक हो. ऐसा भी नहीं है कि प्रतीक चिन्ह एक ही हो, एक से ज्यादा भी हो सकते हैं. फिर भी कोई एक अति महत्वपूर्ण होता है; जो उस संस्था, समाज, देश या फिर धर्म के दर्शन से जुड़ी किसी घटना से संबद्ध होता है. प्रतिक कई श्रेणियों में हो सकते है जैसे की- चिन्ह प्रतिक, रंग प्रतीक, पदार्थ प्रतीक, प्राणी प्रतीक, पुष्प प्रतीक आदि. प्रतिक इसके विशिष्ठ पहचान और विरासत के कारण वैश्विक पहचान होते है जो उस संस्था, समाज, देश या धर्म से जुड़े लोगों के दिलों में गर्व की भावना को महसूस कराते है.

भारत का राष्ट्रीय प्रतीक (राष्ट्रीय चिन्ह्) है- "चार शेर", इसे हम भारत की राजमुद्रा भी कहते है अर्थात् यह वैश्विक स्तर पर भारत के राष्ट्रीय पहचान का आधार है, भारत की राष्ट्रिय पहचान है. जैसे हर राष्ट्र का प्रतिक-चिन्ह होता है वैसे ही हर समाज तथा धर्म का भी एक प्रतीकात्मक चिन्ह होता है. हिन्दू धर्म में स्वस्तिक और ॐ, जैन समाज में अहिंसा हाथ, इस्लाम में अर्ध चाँद एवं तारे, 786, सिख धर्म में खांडा और इसाई धर्म का क्रॉस वाला चिन्ह हम उस समाज या धर्म के प्रतीकचिन्ह के रूप में देखते है; यह सब उन समाजों/धर्मों के प्रतिक-चिन्ह है. सामाजिक या धार्मिक प्रतीक यूं ही नहीं होते हैं, इसके पीछे कुछ गंभीर दर्शन, किंवदंती या फिर कहानी हुआ करती है. ये उस समाज विशेष या धर्म विशेष की पहचान भी होती है और उससे जुड़ी भावनाएं भी होती है और उस समाज विशेष या धर्म विशेष का जीवनदर्शन भी होता है.


सनातन धर्म के प्राचीनतम पुरातनकालीन सर्वज्ञ ऋषियों ने आरम्भ में ध्वज तथा दूसरे प्रतीकों को आजकल की भाँति कल्पित नहीं बनाया था. हमें कोई एक गुण अभीष्ट है इसलिए हम उसी को अपना प्रतीक बना लें ऐसी बात नहीं थी. उस समय के प्रतीक नित्य, सर्वकालिक प्रतीक हैं. 3133 ईसापूर्व में जब भगवान महेशजी और देवी पार्वती (देवी महेश्वरी) के वरदान से माहेश्वरी वंशोत्पत्ति हुई थी (माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए देखें- Maheshwari- Origin and brief History) उसी समय भगवान महेशजी ने नवनिर्मित माहेश्वरी समाज के लिए 6 गुरु भी बनाये और माहेश्वरी समाज के गुरुओं की परंपरा का प्रारम्भ किया. यह माहेश्वरी समाज के प्रबंधन की व्यवस्था थी. इस गुरु परंपरा को प्रारम्भ करके माहेश्वरी समाज को सातत्यपूर्ण मार्गदर्शन मिलता रहे इसका प्रबंध किया गया. इन गुरुओं पर माहेश्वरी समाज को मार्गदर्शित करने का दायित्व सौपा गया.

माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के परंपरागत मान्यता के अनुसार, माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के समय बनाये इन गुरुओं ने भगवान महेशजी द्वारा उन्हें सौपे गए दायित्व को निभाते हुए जो अनेको कार्य किये उनमें से एक महत्वपूर्ण कार्य है की उन्होंने माहेश्वरी समाज के प्रतीकचिन्ह और ध्वज का सृजन किया था. माहेश्वरी प्रतीकचिन्ह (symbol) को "मोड़" कहा जाता है. ये दो प्रतीकों से मिलकर बना है- त्रिशूल और ॐ. मोड़ चिन्ह माहेश्वरी समाज का, माहेश्वरियों का धार्मिक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक चिन्ह है जो माहेश्वरी समाज के कई सिद्धांतों को ज़ाहिर रूप से दर्शाता है. इसमें एक त्रिशूल, त्रिशूल के बिच के पाते में एक वृत्त और वृत्त के अंदर ॐ होता है. माहेश्वरी ध्वज- केसरिया रंग के ध्वज पर 'मोड़' गहरे नीले रंग में अंकित होता है, इसे दिव्यध्वज कहा जाता है. आज के समय में भी देशभर में कुछेक जगहों पर मोड़ और दिव्यध्वज का प्रयोग (use) होता दिखाई देता है. लेकिन ज्यादातर समाजजन 'कमल के फूल पर शिवपिंड' वाले निशान को ही समाज का प्रतीकचिन्ह समझते है. हमें जानना चाहिए, समझना चाहिए की वास्तव में माहेश्वरी समाज का प्रतीकचिन्ह कौनसा है. हमे इसे भी समझना चाहिए की हमें इसे क्यों समझना आवश्यक है.

माहेश्वरी वंशोत्पत्ति कब हुई, कहाँ हुई, कैसे हुई, क्यों हुई इस बारे में आज ज्यादातर समाजजनों को विस्तृत तो क्या संक्षिप्त जानकारी भी नहीं है. इस "कब, कहाँ, कैसे, क्यों" की जानकारी ना होने से समाजजन माहेश्वरी जीवनदर्शन को समझ ही नहीं पा रहे है. कोई भी समाज या धर्म उसके जीवनदर्शन को समझे बिना ऐसा होता है जैसे आत्मा बिना शरीर. तब वह समाज दिशाहीन, लक्ष्यहीन, अराजक स्थिति में मार्गक्रमण करने लगता है. वह एकसाथ, एक दिशा में, एक लक्ष्य की ओर नहीं चल पाता है जिसके परिणामस्वरूप वह क्षीण तथा कमजोर हो जाता है. आज के समय में हमारे माहेश्वरी समाज की स्थिति भी कुछ ऐसी ही दिखाई दे रही है. यह जानकारी पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती रहे, आनेवाली हर नई पीढ़ी इस जानकारी से अवगत होती रहे इसकी व्यवस्था करने में तथा इसके लिए बनी हुई व्यवस्था कायम रख पाने में समाज असफल रहा है. यह कार्य करने के लिए गुरु परंपरा एक सशक्त व्यवस्था होती है. हम देख सकते है की लगभग हर धर्म, हर समाज में गुरु इस कार्य का निर्वहन करते दिखाई देते है. दुर्भाग्य से माहेश्वरी समाज इस बात के महत्व को समझ नहीं पाया और यह माहेश्वरी समाज का दुर्भाग्य है की गुरु परंपरा खंडित हो गई.

गुरु परम्परा के खंडित होने के बाद समाज के प्रबंधन का दायित्व समाज के सामाजिक संगठनों के पास आया. फिर राष्ट्रिय स्तर पर के सबसे बड़े संगठन को समाज का 'नेतृत्व' माना जाने लगा (वस्तुतः माहेश्वरी महासभा को समस्त माहेश्वरी समाज का नेतृत्व भी नहीं माना जा सकता क्योंकि यह संगठन कुल माहेश्वरी समाज के सिर्फ 10% लोगों का ही प्रतिनिधित्व करता है. लेकिन राष्ट्रिय स्तर पर माहेश्वरी समाज का कार्य करनेवाला कोई अन्य सामाजिक संगठन नहीं होने के कारन एक तरह से यह माना जाता रहा है की 'माहेश्वरी महासभा' यह संगठन माहेश्वरी समाज का नेतृत्व करता है). अब यह इस सबसे बड़े संगठन की जिम्मेदारी बन गई थी की वह समाज के धार्मिक-आध्यात्मिक-सांस्कृतिक-सामाजिक प्रबंधन के कार्य को देखें. होना तो यही चाहिए था लेकिन आमतौर पर देखने में यह आता है की सामाजिक संगठन समाज के सामाजिक प्रबंधन को तो बखूबी संभाल लेते है लेकिन धार्मिक-आध्यात्मिक-सांस्कृतिक प्रबंधन इनसे संभलता नहीं है, समाज धार्मिक-आध्यात्मिक-सांस्कृतिक प्रबंधन के प्रबंधनकर्ता के रूप में सामाजिक संगठन को स्वीकारता नहीं है. यही माहेश्वरी समाज में भी हुवा. अतः समाज को नेतृत्व देनेवाले संगठन ने अपना पूरा ध्यान, अपनी पूरी शक्ति केवल सामाजिक कार्य पर ही केंद्रित कर दी. इससे माहेश्वरी समाज की धार्मिक-आध्यात्मिक-सांस्कृतिक विशिष्ठ पहचान कमजोर पड़ गई जिसका परिणाम यह हुवा है की पूरा समाज एकसाथ, एक दिशा में, एक लक्ष्य की ओर नहीं चल रहा है. आज इस बात को हम देख सकते है, अनुभव कर सकते है. यही समाज के सामने के सभी समस्याओं की जड़ है. इन सब बातों को दुरुस्त किया जाना ना केवल समाज के हित में है बल्कि समाज के अस्तित्व के स्थायित्व के लिए आवश्यक भी है.

समाज का अस्तित्व स्थाई रूप से बना रहे, समाज की विशिष्ठ पहचान कायम रहे, पूरा समाज एकसाथ, एक दिशा में, एक लक्ष्य की ओर चलता रहे तो समाज तेज गति से सर्वांगीण प्रगति की ओर अग्रेसर होता है. लेकिन इसके लिए आवश्यक है की समाज अपनी विरासत से, अपने एकात्म श्रद्धास्थान से, अपने प्रेरणा देनेवाले गौरवचिन्हों से, अपने इतिहास से जुड़ा रहे. इस मजबूत जमीन पर अपने पैरों को मजबूती से रखकर आकाश की उड़ान भरे ताकि भविष्य हमेशा सुनहरा हो ! दुर्भाग्य से समाज का नेतृत्व करनेवाले संगठन ने इन बातों के महत्व को नहीं समझा. उन्होंने ना माहेश्वरी वंशोत्पत्ति कैसे हुई इसे महत्व दिया ना माहेश्वरी समाज के इतिहास को, ना माहेश्वरी विरासत को, ना माहेश्वरी समाज के गौरवचिन्हों को.

आज वर्ष 2018 में माहेश्वरी समाज का नेतृत्व माहेश्वरी महासभा कर रहा है (ऐसा माना जाता है). माहेश्वरी महासभा की स्थापना आज से लगभग 110 वर्ष पूर्व हुई. इससे पूर्व का कुछ वर्षों का समय बिना किसी संगठन के रहा. उससे पूर्व में समय समय पर कुछ माहेश्वरी संगठनों ने कुछेक वर्षों तक समाज का नेतृत्व किया. पूर्व में बने संगठनों ने भी और वर्तमान समय में माहेश्वरी समाज का नेतृत्व कर रही माहेश्वरी महासभा ने भी समाज की विरासत और समाज के इतिहास को जाने अनजाने में अनदेखा करते हुए समाज के इन गौरवचिन्हों को दुर्लक्षित किया. आज कुछ बुजुर्ग समाजबंधुओं को यदि छोड़ दे तो ज्यादातर समाजजनों को इन चिन्हों के बारे में जानकारी ही नहीं है (समाज के इन गौरवचिन्हों की तो क्या... माहेश्वरी वंश की उत्पत्ति कैसे हुई, माहेश्वरी समाज का इतिहास क्या है इसके बारेमें भी ज्यादातर समाजजन कुछ नहीं जानते).



माहेश्वरी महासभा ने माहेश्वरी समाज के मूल प्रतीकचिन्ह 'मोड़' को कहीं भी प्रचारित ना करते हुए समाज में अपने संस्था के सिम्बॉल 'कमल के फूल पर शिवपिंड' को ही इस तरह से प्रचारित किया की जैसे यही 'माहेश्वरी समाज' का सिम्बॉल है. जबकि वास्तविकता यह है की 'कमल के फूल पर शिवपिंड' वाला यह सिम्बॉल 'माहेश्वरी महासभा' इस संस्था का सिम्बॉल है, माहेश्वरी समाज का नहीं. यह समाज का नहीं बल्कि संगठन का सिम्बॉल है (अब कोई यह ना कहे की समाज और संगठन एक ही होते है. क्योंकि समाज और संगठन यह दो अलग घटक है. समाज का अर्थ है एकसमान संस्कृति और विचारधारा को मानते हुए एक साथ रहनेवाला समुदाय/संप्रदाय. अब संगठन के अर्थ को समझे, एक ऐसी औपचारिक व्यवस्था जिसके द्वारा समुदाय/संप्रदाय के प्रबन्धन का कार्य किया जाता है उसे कहते है- संगठन). आज ज्यादातर समाजजन 'कमल के फूल पर शिवपिंड' वाले सिम्बॉल को ही माहेश्वरी समाज का सिम्बॉल समझते है (ऐसा समझने के चलते ही स्वतंत्र रूप से कार्य करनेवाले, छोटे तथा स्थानीय स्तर पर कार्य करनेवाले कुछ संगठन माहेश्वरी महासभा के सिम्बॉल 'कमल के फूल पर शिवपिंड' को ही अपने संगठन के सिम्बॉल के रूप में इस्तेमाल करते है).

माहेश्वरी महासभा इस संस्था/संगठन का सिम्बॉल इस संस्था के सौ साल के इतिहास में अबतक तीन बार बदला जा चूका है. वर्तमान समय में माहेश्वरी महासभा का 'कमल के फूल पर शिवपिंड' वाला जो सिम्बॉल है वो आज से छब्बीस वर्ष पूर्व बनाया गया था. यह सिम्बॉल पैठण, महाराष्ट्र के एकनाथजी मूंदड़ा ने डिजाइन किया था जिसे महासभा के राष्ट्रिय अधिवेशन में 'माहेश्वरी महासभा' के सिम्बॉल के रूप में स्वीकृत किया गया था (पता नहीं माहेश्वरी महासभा इस सिम्बॉल को भी कब बदल दे).

'माहेश्वरी समाज' का सिम्बॉल 'मोड़' है जिसका सृजन माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के समय भगवान महेशजी द्वारा बनाये गए माहेश्वरी गुरुओं के द्वारा हुवा था. समाज और धर्मों के प्रतीक नित्य एवं सर्वकालिक होते है इसलिए माहेश्वरी समाज का यह प्रतीकचिन्ह 'मोड़' भी नित्य एवं सर्वकालिक है, अपरिवर्तनीय है; अर्थात इसे बदला नहीं जा सकता. कमल के फूल पर शिवपिंड और मोड़ इन दोनों सिम्बॉल के बिच के अंतर को समझने के लिए आवश्यक है की हम समाज और संगठन के बिच के अंतर को, फर्क को समझे.

संस्था (संगठन) के सिम्बॉल को समाज का सिम्बॉल बताने में गलत क्या है? इसमें समाज का क्या नुकसान है?

कुछ समाजबंधुओं के मन में यह उपरोक्त प्रश्न आ सकते है, यह उन समाजबंधुओं के मन की सरलता है की उन्हें ऐसा लगे की इसमें क्या गलत है, इसमें समाज का क्या नुकसान है? मन की सरलता के कारन ऐसा लग सकता है लेकिन ऐसा है नहीं, यह बात उतनी सरल या छोटी है नहीं की इसे एक छोटी या एक साधारण बात समझी जाये. भाइयों और बहनो, एक समाज का मतलब होता है एक संस्कृति. समाज की संस्कृति और समाज के मूल सिद्धांत होते है समाज की पहचान; और समाज का अस्तित्व आधारित होता है समाज की पहचान पर, ना की संगठन की पहचान पर. इसलिए यदि समाज की पहचान को, समाज के अस्तित्व को, समाज के गौरव को कायम रखना हो तो यह जरुरी है हम समाज की संस्कृति को, समाज के मूल सिद्धांतों को भूले नहीं. जो समाज अपनी संस्कृति को, अपने गौरवचिन्हों को, अपने इतिहास को भूल जाता है, अपनी इन जड़ों से कट जाता है उस समाज के अस्तित्व को, विशिष्ट पहचान को, गौरव को कोई नहीं बचा सकता. सार्वजनिक जीवन में प्रोटोकॉल का भी अपना एक महत्व होता है. जैसे की, भारत की राजमुद्रा 'चार शेर' और ध्वज 'तिरंगा ध्वज' है. देश को राजकीय नेतृत्व देने के लिए राजनीतिक दल की व्यवस्था होती है, जैसे की भारत में कांग्रेस, भाजपा आदि. भाजपा का प्रतीकचिन्ह है कमल का फूल, कांग्रेस का प्रतीकचिन्ह है हाथ का पंजा. "चार शेर, कमल का फूल और हाथ का पंजा" इन तीन प्रतीकचिन्हों में सर्वोच्च प्रतीकचिन्ह है 'चार शेर; क्योंकि यह समस्त राष्ट्र का प्रतीकचिन्ह है और कमल का फूल, हाथ का पंजा यह देश के लिए कार्य करनेवाले अथवा देश को नेतृत्व देनेवाले राजनीतिक दल के प्रतीकचिन्ह है; उसी तरह 'मोड़' यह समस्त माहेश्वरी समाज का प्रतीकचिन्ह है और समाज के लिए कार्य करनेवाले अथवा समाज को नेतृत्व देनेवाले माहेश्वरी महासभा का प्रतीकचिन्ह है 'कमल के फूल पर शिवपिंड', माहेश्वरी समाज के संगठनों के महासंघ 'माहेश्वरी महासंघ' का प्रतीकचिन्ह है 'एकता हाथ (unity hand)'. जैसे 'चार शेर' इस प्रतीकचिन्ह का विशेष महत्व है, इस चिन्ह के लिए देशवासियों के मन में विशेष गौरव का भाव होता है, तिरंगे ध्वज के प्रति विशेष गौरव की अनुभूति होती है उसी तरह 'मोड़' इस प्रतीकचिन्ह का विशेष महत्व है, इस चिन्ह के लिए समाजजनों के मन में विशेष गौरव का भाव होना चाहिए. दिव्यध्वज के प्रति विशेष गौरव की अनुभूति होनी चाहिए. संगठन के सिम्बॉल भी उस संगठन की पहचान होते है, संगठनों के लिए उनके अपने संगठनों के प्रतीकचिन्ह (सिम्बॉल) का जरूर महत्व है लेकिन समाज का प्रतीकचिन्ह सर्वोपरि है, समाज के प्रतीकचिन्ह का उचित सम्मान किया जाना चाहिए, यह बात समाज को और समाज के लिए कार्य करनेवाले संगठनो को विशेषरूप से ध्यान में रखनी चाहिए.


वर्तमान समय में माहेश्वरी समाज के पुनरुत्थान के लिए समाज प्रबंधन की व्यवस्था में कुछ बड़े परिवर्तन, कुछ नये व्यवस्थापन के निर्माण (नवनिर्माण) की आवश्यकता शिद्दत से महसूस की जा रही है. समाज के सौभाग्य से योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी महाराज ने इस दिशा में ठोस पहल की है. माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के समय भगवान महेशजी ने जिस माहेश्वरी समाजगुरूओं की परंपरा शुरू की थी, इन गुरुओं ने समाज को स्थाई मार्गदर्शन मिलता रहे इसके लिए एक माहेश्वरी गुरुपीठ स्थापित किया था लेकिन समय के प्रवाह में किसी कारणवश गुरुओं एवं गुरुपीठ की यह परंपरा खंडित हो गई थी; प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी महाराज ने इसे "माहेश्वरी अखाड़ा" के नाम से पुनर्जीवित करने का ऐतिहासिक कार्य किया है. माहेश्वरी अखाड़े की स्थापना माहेश्वरी समाज के सर्वोच्च धार्मिक-आध्यात्मिक संस्था के रूप में की गई है (स्थापना के समय इसे 'दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा' के नाम से नामांकित किया गया था लेकिन यह माहेश्वरी अखाड़ा के नाम से प्रसिद्ध है). माहेश्वरी समाज के पुनरुत्थान के लिए समाज के धार्मिक-आध्यात्मिक-सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी का निर्वहन माहेश्वरी अखाड़े के माध्यम से होगा तथा सामाजिक कार्यों को गति देने तथा सामाजिक कार्यों के निर्वहन की जिम्मेदारी समाज के लिए कार्य करनेवाले सामाजिक संगठन निभायेंगे. माहेश्वरी समाज के पुनरुत्थान के लिए शुरू किये इस अभियान का पहला कदम है समाज को समाज की जड़ों से जोड़ना, समाज के मूल सिद्धांतों से जोड़ना, समस्त समाज को एकता के सूत्र में बांधना. पुनरुत्थान और पुनर्निमाण का यह अभियान किसी एक का नहीं है बल्कि समस्त समाज का, समाज के हरएक व्यक्ति का, समाज के लिए कार्य करनेवाले हरएक संगठन का है जिसका श्रीगणेश करना है माहेश्वरी समाज की मूल पहचान, समाज के प्रतीकचिन्ह 'मोड़' को प्रेरणा बनाकर !


माहेश्वरी समाज के प्रतिक-चिन्ह 'मोड़' की अधिक जानकारी के लिए कृपया इस Link को देखें- Symbol of Maheshwari Community