Which is the Symbol of Maheshwari Community


सामूहिक जीवन में प्रतीकों का बड़ा महत्व है. ये प्रतिक (symbol) एक तरह से समूह की पहचान हुआ करते हैं फिर वह चाहे किसी संस्था का हो, समाज का, देश का या फिर धर्म का प्रतिक हो. ऐसा भी नहीं है कि प्रतीक चिन्ह एक ही हो, एक से ज्यादा भी हो सकते हैं. फिर भी कोई एक अति महत्वपूर्ण होता है; जो उस संस्था, समाज, देश या फिर धर्म के दर्शन से जुड़ी किसी घटना से संबद्ध होता है. प्रतिक कई श्रेणियों में हो सकते है जैसे की- चिन्ह प्रतिक, रंग प्रतीक, पदार्थ प्रतीक, प्राणी प्रतीक, पुष्प प्रतीक आदि. प्रतिक इसके विशिष्ठ पहचान और विरासत के कारण वैश्विक पहचान होते है जो उस संस्था, समाज, देश या धर्म से जुड़े लोगों के दिलों में गर्व की भावना को महसूस कराते है.

भारत का राष्ट्रीय प्रतीक (राष्ट्रीय चिन्ह्) है- "चार शेर", इसे हम भारत की राजमुद्रा भी कहते है अर्थात् यह वैश्विक स्तर पर भारत के राष्ट्रीय पहचान का आधार है, भारत की राष्ट्रिय पहचान है. जैसे हर राष्ट्र का प्रतिक-चिन्ह होता है वैसे ही हर समाज तथा धर्म का भी एक प्रतीकात्मक चिन्ह होता है. हिन्दू धर्म में स्वस्तिक और ॐ, जैन समाज में अहिंसा हाथ, इस्लाम में अर्ध चाँद एवं तारे, 786, सिख धर्म में खांडा और इसाई धर्म का क्रॉस वाला चिन्ह हम उस समाज या धर्म के प्रतीकचिन्ह के रूप में देखते है; यह सब उन समाजों/धर्मों के प्रतिक-चिन्ह है. सामाजिक या धार्मिक प्रतीक यूं ही नहीं होते हैं, इसके पीछे कुछ गंभीर दर्शन, किंवदंती या फिर कहानी हुआ करती है. ये उस समाज विशेष या धर्म विशेष की पहचान भी होती है और उससे जुड़ी भावनाएं भी होती है और उस समाज विशेष या धर्म विशेष का जीवनदर्शन भी होता है.


सनातन धर्म के प्राचीनतम पुरातनकालीन सर्वज्ञ ऋषियों ने आरम्भ में ध्वज तथा दूसरे प्रतीकों को आजकल की भाँति कल्पित नहीं बनाया था. हमें कोई एक गुण अभीष्ट है इसलिए हम उसी को अपना प्रतीक बना लें ऐसी बात नहीं थी. उस समय के प्रतीक नित्य, सर्वकालिक प्रतीक हैं. 3133 ईसापूर्व में जब भगवान महेशजी और देवी पार्वती (देवी महेश्वरी) के वरदान से माहेश्वरी वंशोत्पत्ति हुई थी (माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए देखें- Maheshwari- Origin and brief History) उसी समय भगवान महेशजी ने नवनिर्मित माहेश्वरी समाज के लिए 6 गुरु भी बनाये और माहेश्वरी समाज के गुरुओं की परंपरा का प्रारम्भ किया. यह माहेश्वरी समाज के प्रबंधन की व्यवस्था थी. इस गुरु परंपरा को प्रारम्भ करके माहेश्वरी समाज को सातत्यपूर्ण मार्गदर्शन मिलता रहे इसका प्रबंध किया गया. इन गुरुओं पर माहेश्वरी समाज को मार्गदर्शित करने का दायित्व सौपा गया.

माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के परंपरागत मान्यता के अनुसार, माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के समय बनाये इन गुरुओं ने भगवान महेशजी द्वारा उन्हें सौपे गए दायित्व को निभाते हुए जो अनेको कार्य किये उनमें से एक महत्वपूर्ण कार्य है की उन्होंने माहेश्वरी समाज के प्रतीकचिन्ह और ध्वज का सृजन किया था. माहेश्वरी प्रतीकचिन्ह (symbol) को "मोड़" कहा जाता है. ये दो प्रतीकों से मिलकर बना है- त्रिशूल और ॐ. मोड़ चिन्ह माहेश्वरी समाज का, माहेश्वरियों का धार्मिक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक चिन्ह है जो माहेश्वरी समाज के कई सिद्धांतों को ज़ाहिर रूप से दर्शाता है. इसमें एक त्रिशूल, त्रिशूल के बिच के पाते में एक वृत्त और वृत्त के अंदर ॐ होता है. माहेश्वरी ध्वज- केसरिया रंग के ध्वज पर 'मोड़' गहरे नीले रंग में अंकित होता है, इसे दिव्यध्वज कहा जाता है. आज के समय में भी देशभर में कुछेक जगहों पर मोड़ और दिव्यध्वज का प्रयोग (use) होता दिखाई देता है. लेकिन ज्यादातर समाजजन 'कमल के फूल पर शिवपिंड' वाले निशान को ही समाज का प्रतीकचिन्ह समझते है. हमें जानना चाहिए, समझना चाहिए की वास्तव में माहेश्वरी समाज का प्रतीकचिन्ह कौनसा है. हमे इसे भी समझना चाहिए की हमें इसे क्यों समझना आवश्यक है.

माहेश्वरी वंशोत्पत्ति कब हुई, कहाँ हुई, कैसे हुई, क्यों हुई इस बारे में आज ज्यादातर समाजजनों को विस्तृत तो क्या संक्षिप्त जानकारी भी नहीं है. इस "कब, कहाँ, कैसे, क्यों" की जानकारी ना होने से समाजजन माहेश्वरी जीवनदर्शन को समझ ही नहीं पा रहे है. कोई भी समाज या धर्म उसके जीवनदर्शन को समझे बिना ऐसा होता है जैसे आत्मा बिना शरीर. तब वह समाज दिशाहीन, लक्ष्यहीन, अराजक स्थिति में मार्गक्रमण करने लगता है. वह एकसाथ, एक दिशा में, एक लक्ष्य की ओर नहीं चल पाता है जिसके परिणामस्वरूप वह क्षीण तथा कमजोर हो जाता है. आज के समय में हमारे माहेश्वरी समाज की स्थिति भी कुछ ऐसी ही दिखाई दे रही है. यह जानकारी पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती रहे, आनेवाली हर नई पीढ़ी इस जानकारी से अवगत होती रहे इसकी व्यवस्था करने में तथा इसके लिए बनी हुई व्यवस्था कायम रख पाने में समाज असफल रहा है. यह कार्य करने के लिए गुरु परंपरा एक सशक्त व्यवस्था होती है. हम देख सकते है की लगभग हर धर्म, हर समाज में गुरु इस कार्य का निर्वहन करते दिखाई देते है. दुर्भाग्य से माहेश्वरी समाज इस बात के महत्व को समझ नहीं पाया और यह माहेश्वरी समाज का दुर्भाग्य है की गुरु परंपरा खंडित हो गई.

गुरु परम्परा के खंडित होने के बाद समाज के प्रबंधन का दायित्व समाज के सामाजिक संगठनों के पास आया. फिर राष्ट्रिय स्तर पर के सबसे बड़े संगठन को समाज का 'नेतृत्व' माना जाने लगा (वस्तुतः माहेश्वरी महासभा को समस्त माहेश्वरी समाज का नेतृत्व भी नहीं माना जा सकता क्योंकि यह संगठन कुल माहेश्वरी समाज के सिर्फ 10% लोगों का ही प्रतिनिधित्व करता है. लेकिन राष्ट्रिय स्तर पर माहेश्वरी समाज का कार्य करनेवाला कोई अन्य सामाजिक संगठन नहीं होने के कारन एक तरह से यह माना जाता रहा है की 'माहेश्वरी महासभा' यह संगठन माहेश्वरी समाज का नेतृत्व करता है). अब यह इस सबसे बड़े संगठन की जिम्मेदारी बन गई थी की वह समाज के धार्मिक-आध्यात्मिक-सांस्कृतिक-सामाजिक प्रबंधन के कार्य को देखें. होना तो यही चाहिए था लेकिन आमतौर पर देखने में यह आता है की सामाजिक संगठन समाज के सामाजिक प्रबंधन को तो बखूबी संभाल लेते है लेकिन धार्मिक-आध्यात्मिक-सांस्कृतिक प्रबंधन इनसे संभलता नहीं है, समाज धार्मिक-आध्यात्मिक-सांस्कृतिक प्रबंधन के प्रबंधनकर्ता के रूप में सामाजिक संगठन को स्वीकारता नहीं है. यही माहेश्वरी समाज में भी हुवा. अतः समाज को नेतृत्व देनेवाले संगठन ने अपना पूरा ध्यान, अपनी पूरी शक्ति केवल सामाजिक कार्य पर ही केंद्रित कर दी. इससे माहेश्वरी समाज की धार्मिक-आध्यात्मिक-सांस्कृतिक विशिष्ठ पहचान कमजोर पड़ गई जिसका परिणाम यह हुवा है की पूरा समाज एकसाथ, एक दिशा में, एक लक्ष्य की ओर नहीं चल रहा है. आज इस बात को हम देख सकते है, अनुभव कर सकते है. यही समाज के सामने के सभी समस्याओं की जड़ है. इन सब बातों को दुरुस्त किया जाना ना केवल समाज के हित में है बल्कि समाज के अस्तित्व के स्थायित्व के लिए आवश्यक भी है.

समाज का अस्तित्व स्थाई रूप से बना रहे, समाज की विशिष्ठ पहचान कायम रहे, पूरा समाज एकसाथ, एक दिशा में, एक लक्ष्य की ओर चलता रहे तो समाज तेज गति से सर्वांगीण प्रगति की ओर अग्रेसर होता है. लेकिन इसके लिए आवश्यक है की समाज अपनी विरासत से, अपने एकात्म श्रद्धास्थान से, अपने प्रेरणा देनेवाले गौरवचिन्हों से, अपने इतिहास से जुड़ा रहे. इस मजबूत जमीन पर अपने पैरों को मजबूती से रखकर आकाश की उड़ान भरे ताकि भविष्य हमेशा सुनहरा हो ! दुर्भाग्य से समाज का नेतृत्व करनेवाले संगठन ने इन बातों के महत्व को नहीं समझा. उन्होंने ना माहेश्वरी वंशोत्पत्ति कैसे हुई इसे महत्व दिया ना माहेश्वरी समाज के इतिहास को, ना माहेश्वरी विरासत को, ना माहेश्वरी समाज के गौरवचिन्हों को.

आज वर्ष 2018 में माहेश्वरी समाज का नेतृत्व माहेश्वरी महासभा कर रहा है (ऐसा माना जाता है). माहेश्वरी महासभा की स्थापना आज से लगभग 110 वर्ष पूर्व हुई. इससे पूर्व का कुछ वर्षों का समय बिना किसी संगठन के रहा. उससे पूर्व में समय समय पर कुछ माहेश्वरी संगठनों ने कुछेक वर्षों तक समाज का नेतृत्व किया. पूर्व में बने संगठनों ने भी और वर्तमान समय में माहेश्वरी समाज का नेतृत्व कर रही माहेश्वरी महासभा ने भी समाज की विरासत और समाज के इतिहास को जाने अनजाने में अनदेखा करते हुए समाज के इन गौरवचिन्हों को दुर्लक्षित किया. आज कुछ बुजुर्ग समाजबंधुओं को यदि छोड़ दे तो ज्यादातर समाजजनों को इन चिन्हों के बारे में जानकारी ही नहीं है (समाज के इन गौरवचिन्हों की तो क्या... माहेश्वरी वंश की उत्पत्ति कैसे हुई, माहेश्वरी समाज का इतिहास क्या है इसके बारेमें भी ज्यादातर समाजजन कुछ नहीं जानते).



माहेश्वरी महासभा ने माहेश्वरी समाज के मूल प्रतीकचिन्ह 'मोड़' को कहीं भी प्रचारित ना करते हुए समाज में अपने संस्था के सिम्बॉल 'कमल के फूल पर शिवपिंड' को ही इस तरह से प्रचारित किया की जैसे यही 'माहेश्वरी समाज' का सिम्बॉल है. जबकि वास्तविकता यह है की 'कमल के फूल पर शिवपिंड' वाला यह सिम्बॉल 'माहेश्वरी महासभा' इस संस्था का सिम्बॉल है, माहेश्वरी समाज का नहीं. यह समाज का नहीं बल्कि संगठन का सिम्बॉल है (अब कोई यह ना कहे की समाज और संगठन एक ही होते है. क्योंकि समाज और संगठन यह दो अलग घटक है. समाज का अर्थ है एकसमान संस्कृति और विचारधारा को मानते हुए एक साथ रहनेवाला समुदाय/संप्रदाय. अब संगठन के अर्थ को समझे, एक ऐसी औपचारिक व्यवस्था जिसके द्वारा समुदाय/संप्रदाय के प्रबन्धन का कार्य किया जाता है उसे कहते है- संगठन). आज ज्यादातर समाजजन 'कमल के फूल पर शिवपिंड' वाले सिम्बॉल को ही माहेश्वरी समाज का सिम्बॉल समझते है (ऐसा समझने के चलते ही स्वतंत्र रूप से कार्य करनेवाले, छोटे तथा स्थानीय स्तर पर कार्य करनेवाले कुछ संगठन माहेश्वरी महासभा के सिम्बॉल 'कमल के फूल पर शिवपिंड' को ही अपने संगठन के सिम्बॉल के रूप में इस्तेमाल करते है).

माहेश्वरी महासभा इस संस्था/संगठन का सिम्बॉल इस संस्था के सौ साल के इतिहास में अबतक तीन बार बदला जा चूका है. वर्तमान समय में माहेश्वरी महासभा का 'कमल के फूल पर शिवपिंड' वाला जो सिम्बॉल है वो आज से छब्बीस वर्ष पूर्व बनाया गया था. यह सिम्बॉल पैठण, महाराष्ट्र के एकनाथजी मूंदड़ा ने डिजाइन किया था जिसे महासभा के राष्ट्रिय अधिवेशन में 'माहेश्वरी महासभा' के सिम्बॉल के रूप में स्वीकृत किया गया था (पता नहीं माहेश्वरी महासभा इस सिम्बॉल को भी कब बदल दे).

'माहेश्वरी समाज' का सिम्बॉल 'मोड़' है जिसका सृजन माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के समय भगवान महेशजी द्वारा बनाये गए माहेश्वरी गुरुओं के द्वारा हुवा था. समाज और धर्मों के प्रतीक नित्य एवं सर्वकालिक होते है इसलिए माहेश्वरी समाज का यह प्रतीकचिन्ह 'मोड़' भी नित्य एवं सर्वकालिक है, अपरिवर्तनीय है; अर्थात इसे बदला नहीं जा सकता. कमल के फूल पर शिवपिंड और मोड़ इन दोनों सिम्बॉल के बिच के अंतर को समझने के लिए आवश्यक है की हम समाज और संगठन के बिच के अंतर को, फर्क को समझे.

संस्था (संगठन) के सिम्बॉल को समाज का सिम्बॉल बताने में गलत क्या है? इसमें समाज का क्या नुकसान है?

कुछ समाजबंधुओं के मन में यह उपरोक्त प्रश्न आ सकते है, यह उन समाजबंधुओं के मन की सरलता है की उन्हें ऐसा लगे की इसमें क्या गलत है, इसमें समाज का क्या नुकसान है? मन की सरलता के कारन ऐसा लग सकता है लेकिन ऐसा है नहीं, यह बात उतनी सरल या छोटी है नहीं की इसे एक छोटी या एक साधारण बात समझी जाये. भाइयों और बहनो, एक समाज का मतलब होता है एक संस्कृति. समाज की संस्कृति और समाज के मूल सिद्धांत होते है समाज की पहचान; और समाज का अस्तित्व आधारित होता है समाज की पहचान पर, ना की संगठन की पहचान पर. इसलिए यदि समाज की पहचान को, समाज के अस्तित्व को, समाज के गौरव को कायम रखना हो तो यह जरुरी है हम समाज की संस्कृति को, समाज के मूल सिद्धांतों को भूले नहीं. जो समाज अपनी संस्कृति को, अपने गौरवचिन्हों को, अपने इतिहास को भूल जाता है, अपनी इन जड़ों से कट जाता है उस समाज के अस्तित्व को, विशिष्ट पहचान को, गौरव को कोई नहीं बचा सकता. सार्वजनिक जीवन में प्रोटोकॉल का भी अपना एक महत्व होता है. जैसे की, भारत की राजमुद्रा 'चार शेर' और ध्वज 'तिरंगा ध्वज' है. देश को राजकीय नेतृत्व देने के लिए राजनीतिक दल की व्यवस्था होती है, जैसे की भारत में कांग्रेस, भाजपा आदि. भाजपा का प्रतीकचिन्ह है कमल का फूल, कांग्रेस का प्रतीकचिन्ह है हाथ का पंजा. "चार शेर, कमल का फूल और हाथ का पंजा" इन तीन प्रतीकचिन्हों में सर्वोच्च प्रतीकचिन्ह है 'चार शेर; क्योंकि यह समस्त राष्ट्र का प्रतीकचिन्ह है और कमल का फूल, हाथ का पंजा यह देश के लिए कार्य करनेवाले अथवा देश को नेतृत्व देनेवाले राजनीतिक दल के प्रतीकचिन्ह है; उसी तरह 'मोड़' यह समस्त माहेश्वरी समाज का प्रतीकचिन्ह है और समाज के लिए कार्य करनेवाले अथवा समाज को नेतृत्व देनेवाले माहेश्वरी महासभा का प्रतीकचिन्ह है 'कमल के फूल पर शिवपिंड', माहेश्वरी समाज के संगठनों के महासंघ 'माहेश्वरी महासंघ' का प्रतीकचिन्ह है 'एकता हाथ (unity hand)'. जैसे 'चार शेर' इस प्रतीकचिन्ह का विशेष महत्व है, इस चिन्ह के लिए देशवासियों के मन में विशेष गौरव का भाव होता है, तिरंगे ध्वज के प्रति विशेष गौरव की अनुभूति होती है उसी तरह 'मोड़' इस प्रतीकचिन्ह का विशेष महत्व है, इस चिन्ह के लिए समाजजनों के मन में विशेष गौरव का भाव होना चाहिए. दिव्यध्वज के प्रति विशेष गौरव की अनुभूति होनी चाहिए. संगठन के सिम्बॉल भी उस संगठन की पहचान होते है, संगठनों के लिए उनके अपने संगठनों के प्रतीकचिन्ह (सिम्बॉल) का जरूर महत्व है लेकिन समाज का प्रतीकचिन्ह सर्वोपरि है, समाज के प्रतीकचिन्ह का उचित सम्मान किया जाना चाहिए, यह बात समाज को और समाज के लिए कार्य करनेवाले संगठनो को विशेषरूप से ध्यान में रखनी चाहिए.


वर्तमान समय में माहेश्वरी समाज के पुनरुत्थान के लिए समाज प्रबंधन की व्यवस्था में कुछ बड़े परिवर्तन, कुछ नये व्यवस्थापन के निर्माण (नवनिर्माण) की आवश्यकता शिद्दत से महसूस की जा रही है. समाज के सौभाग्य से योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी महाराज ने इस दिशा में ठोस पहल की है. माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के समय भगवान महेशजी ने जिस माहेश्वरी समाजगुरूओं की परंपरा शुरू की थी, इन गुरुओं ने समाज को स्थाई मार्गदर्शन मिलता रहे इसके लिए एक माहेश्वरी गुरुपीठ स्थापित किया था लेकिन समय के प्रवाह में किसी कारणवश गुरुओं एवं गुरुपीठ की यह परंपरा खंडित हो गई थी; प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी महाराज ने इसे "माहेश्वरी अखाड़ा" के नाम से पुनर्जीवित करने का ऐतिहासिक कार्य किया है. माहेश्वरी अखाड़े की स्थापना माहेश्वरी समाज के सर्वोच्च धार्मिक-आध्यात्मिक संस्था के रूप में की गई है (स्थापना के समय इसे 'दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा' के नाम से नामांकित किया गया था लेकिन यह माहेश्वरी अखाड़ा के नाम से प्रसिद्ध है). माहेश्वरी समाज के पुनरुत्थान के लिए समाज के धार्मिक-आध्यात्मिक-सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी का निर्वहन माहेश्वरी अखाड़े के माध्यम से होगा तथा सामाजिक कार्यों को गति देने तथा सामाजिक कार्यों के निर्वहन की जिम्मेदारी समाज के लिए कार्य करनेवाले सामाजिक संगठन निभायेंगे. माहेश्वरी समाज के पुनरुत्थान के लिए शुरू किये इस अभियान का पहला कदम है समाज को समाज की जड़ों से जोड़ना, समाज के मूल सिद्धांतों से जोड़ना, समस्त समाज को एकता के सूत्र में बांधना. पुनरुत्थान और पुनर्निमाण का यह अभियान किसी एक का नहीं है बल्कि समस्त समाज का, समाज के हरएक व्यक्ति का, समाज के लिए कार्य करनेवाले हरएक संगठन का है जिसका श्रीगणेश करना है माहेश्वरी समाज की मूल पहचान, समाज के प्रतीकचिन्ह 'मोड़' को प्रेरणा बनाकर !


माहेश्वरी समाज के प्रतिक-चिन्ह 'मोड़' की अधिक जानकारी के लिए कृपया इस Link को देखें- Symbol of Maheshwari Community

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