Maheshwari Samaj Ki Sthapana Kab Hui? Kisane ki?


प्रतिवर्ष, ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को "महेश नवमी" का उत्सव मनाया जाता है. महेश नवमी यह माहेश्वरी वंशोत्पत्ति दिवस है अर्थात इसी दिन माहेश्वरी समाज की वंशोत्पत्ति (माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति) हुई थी. इसीलिए माहेश्वरी समाज इस दिन को माहेश्वरी समाज के स्थापना दिवस के रूप में मनाता है.

ऐसी मान्यता है कि, भगवान महेश और आदिशक्ति माता पार्वति ने ऋषियों के शाप के कारन पत्थरवत् बने हुए 72 क्षत्रिय उमराओं को युधिष्टिर संवत 9 जेष्ट शुक्ल नवमी के दिन शापमुक्त किया और पुनर्जीवन देते हुए कहा की, "आज से तुम्हारे वंशपर हमारी छाप रहेगी, तुम “माहेश्वरी’’ कहलाओगे". भगवान महेशजी के आशीर्वाद से पुनर्जीवन और माहेश्वरी नाम प्राप्त होने के कारन तभी से माहेश्वरी समाज ज्येष्ठ शुक्ल नवमी (महेश नवमी) को 'माहेश्वरी उत्पत्ति दिन (स्थापना दिन)' के रूप में मनाता है. इसी दिन भगवान महेश और देवी महेश्वरी (माता पार्वती) की कृपा से माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति हुई इसलिए भगवान महेश और देवी महेश्वरी को माहेश्वरी समाज के संस्थापक मानकर माहेश्वरी समाज में यह उत्सव 'माहेश्वरी वंशोत्पत्ति दिन' के रुपमें बहुत ही भव्य रूप में और बड़ी ही धूम-धाम से मनाया जाता है. महेश नवमी का यह पर्व मुख्य रूप से भगवान महेश (महादेव) और माता पार्वती की आराधना को समर्पित है.

माहेश्वरी समाज ने और समाज के नेतृत्व ने समाज की संस्कृति, संस्कृति की प्राचीनता, समाज के इतिहास का क्या महत्व होता है, उन्हें क्यों संजोकर रखा जाता है इसके महत्व को ना समझते हुए इसे कभी महत्व ही नहीं दिया. दुर्भाग्य इसे कभी समझा ही नहीं गया की समाज की विरासत का, इतिहास का, धरोहरों का कोई महत्व भी होता है. इसीलिए आज माहेश्वरी समाज के पास अपनी विरासत, अपनी धरोहर, अपने इतिहास के बारे में बताने के लिए कुछ नहीं है. इसका मतलब यह नहीं है की कुछ है ही नहीं बल्कि इसका मतलब यह है की उनका संरक्षण-संवर्धन करने में ध्यान नहीं दिया गया है, उनके संरक्षण-संवर्धन की जिम्मेदारी को निभाया नहीं गया है. यही कारन है की आज ज्यादातर समाजजनों को यह भी मालूम नहीं है की आज से कितने वर्ष पूर्व हुई है माहेश्वरी वंशोत्पत्ति?

पीढ़ी दर पीढ़ी, परंपरागत रूप से माहेश्वरी समाज में महेश नवमी का पर्व बड़े ही श्रद्धा और आस्था से मनाया जाता रहा है लेकिन ज्यादातर माहेश्वरी समाजजन इसे नहीं जानते की हम महेश नवमी का यह कितवा पर्व मना रहे है? आज से कितने वर्ष पूर्व हुई है माहेश्वरी वंशोत्पत्ति? ज्यादातर माहेश्वरी समाजजन इसे नहीं जानते इसलिए प्रतिवर्ष महेश नवमी तो मनाई जाती रही है, मनाई जाती है लेकिन यह महेश नवमी कीतवी है इसका कोई उल्लेख होते हुए दिखाई नहीं देता है. परिणामतः यह साफ़ साफ़ स्पष्ट नहीं हो पाता है की माहेश्वरी समाज की संस्कृति कितनी प्राचीन है, माहेश्वरी समाज को कितने वर्षों का इतिहास है. आइये, जानते है की आज से कितने वर्ष पूर्व हुई है माहेश्वरी वंशोत्पत्ति?

माहेश्वरी समाज की वंशोत्पत्ति कैसे हुई इसके बारे में जो कथा परंपरागत रूप से, पीढ़ी दर पीढ़ी प्रचलित है उस कथा (देखें Link > माहेश्वरी वंशोत्पत्ति एवं इतिहास) में आये स्थानों के नाम से, पात्रों के नाम से, उनके कालखंड के माध्यम से, स्थानों की भौगोलिकता से भी माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के काल निर्धारण को जाना-समझा जा सकता है. 

(1) माहेश्वरी वंशोत्पत्ति कथा में महर्षि पराशर, ऋषि सारस्वत, ऋषि ग्वाला, ऋषि गौतम, ऋषि श्रृंगी, ऋषि दाधीच इन 6 ऋषियों का और उनके नामों का उल्लेख मिलता है जिन्हे भगवान महेशजी ने माहेश्वरी समाज का गुरु बनाया था. महाभारत के ग्रन्थ में भी इन ऋषियों का उल्लेख मिलता है, जैसे की- “महर्षि पराशर ने महाराजा युधिष्ठिर को ‘शिव-महिमा’ के विषय में अपना अनुभव बताया”. महाभारत तथा तत्कालीन ग्रंथों में कई जगहों पर पराशर, भरद्वाज आदि ऋषियों का नामोल्लेख मिलता है जिससे इस बात की पुष्टि होती है की यह ऋषि (माहेश्वरी गुरु) महाभारतकालीन है, और इस सन्दर्भ से इस बात की भी पुष्टि होती है की माहेश्वरी वंशोत्पत्ती महाभारतकाल में हुई है.

(2) माहेश्वरी वंशोत्पत्ति कथा में खण्डेलपुर राज्य का उल्लेख आता है. महाभारतकाल में लगभग 260 जनपद (राज्य) होने का उल्लेख भारत के प्राचीन इतिहास में मिलता है. इनमें से जो बड़े और मुख्य जनपद थे इन्हे महा-जनपद कहा जाता था. कुरु, मत्स्य, गांधार आदि 16 महा-जनपदों का उल्लेख महाभारत में मिलता है. इनके अलावा जो छोटे जनपद थे, उनमें से कुछ जनपद तो 5 गावों के भी थे तो कुछेक जनपद मात्र एक गांव के भी होने की बात कही गयी है. इससे प्रतीत होता है की माहेश्वरी उत्पत्ति कथा में वर्णित 'खण्डेलपुर' जनपद भी इन जनपदों में से एक रहा होगा.

राजस्थान के प्राचीन इतिहास की यह जानकारी की- ‘खंडेला’ राजस्थान स्थित एक प्राचीन स्थान है जो सीकर से 28 मील पर स्थित है, इसका प्राचीन नाम खंडिल्ल और खंडेलपुर था. यह जानकारी खण्डेलपुर के प्राचीनता की और उसके महाभारतकालीन अस्तित्व की पुष्टि करती है.खंडेला से तीसरी शती ई. का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है और यहाँ अनेक प्राचीन मंदिरों के ध्वंसावशेष हैं. “खंडेला सातवीं शती ई. तक शैवमत (शिव अर्थात भगवान महेश को माननेवाले जनसमूह) का एक मुख्य केंद्र था”, यह जानकारी खण्डेलपुर और उसके महाभारतकालीन अस्तित्व की पुष्टि करती है और यंहा पर सातवीं शती तक शिव (महेश) को माननेवाला समाज अर्थात माहेश्वरी समाज के होने की भी पुष्टि करती है. इसी तरह से माहेश्वरी वंशोत्पत्ति कथा में आये (वर्णित) बातों के सन्दर्भ के आधारपर यह स्पष्ट होता है की माहेश्वरी वंशोत्पत्ति द्वापरयुग के महाभारतकाल में हुई है.

(3) माहेश्वरी समाज में माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के काल (समय) के बारे में एक श्लोक के द्वारा बताया जाता है, वह श्लोक है-
आसन मघासु मुनय: शासति युधिष्ठिरे नृपते l
सूर्यस्थाने महेशकृपया जाता माहेश्वरी समुत्पत्तिः ll
अर्थ- जब सप्तर्षि मघा नक्षत्र में थे, युधिष्ठिर राजा शासन करता था, सूर्य के स्थान पर अर्थात राजस्थान प्रान्त के लोहार्गल में (लोहार्गल- जहाँ सूर्य अपनी पत्नी छाया के साथ निवास करते है, वह स्थान जो की माहेश्वरीयों का वंशोत्पत्ति स्थान है), भगवान महेशजी की कृपा (वरदान) से; कृपया - कृपा से, माहेश्वरी उत्पत्ति हुई.

उपरोक्त श्लोक से इस तथ्य की पूरी तरह से पुष्टि होती है की माहेश्वरी वंशोत्पत्ति महाभारतकाल में हुई है जब धनुर्धारी अर्जुन के बड़े भाई युधिष्ठिर एक राजा के रूप में शासन कर रहे थे. माहेश्वरी समाज में परंपरागत रूप से, पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही मान्यता के अनुसार माहेश्वरी समाज की वंशोत्पत्ति की जो तिथि और संवत बताया जाता है- "युधिष्ठिर सम्वत 9, जेष्ठ शुक्ल नवमी" से भी इस बात की पुष्टि होती है की माहेश्वरी वंशोत्पत्ति महाभारतकाल (द्वापरयुग) में हुई है.

आसन मघासु मुनय:
मुनया (मुनि) अर्थात आकाशगंगा के सात तारे जिन्हे सप्तर्षि कहा जाता है. ब्राह्मांड में कुल 27 नक्षत्र हैं. सप्तर्षि प्रत्येक नक्षत्र में 100 वर्ष ठहरते हैं. इस तरह 2700 साल में सप्तर्षि एक चक्र पूरा करते हैं. पुरातनकाल में किसी महत्वपूर्ण अथवा बड़ी घटना का समय या काल दर्शाने के लिए 'सप्तर्षि किस नक्षत्र में है या थे' इसका प्रयोग किया जाता था. माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा गया है की सप्तर्षि उस समय मघा नक्षत्र में थे. द्वापर युग के उत्तरकाल (जिसे महाभारतकाल कहा जाता है) में भी सप्तर्षि मघा नक्षत्र में थे तो इस तरह से बताया गया है की माहेश्वरी वंशोत्पत्ति द्वापरयुग के उत्तरकाल में अर्थात महाभारतकाल में हुई है. श्लोक के 'शासति युधिष्ठिरे नृपते' इस पद (शब्द समूह) से इस बात की पुष्टि होती है की यह समय महाभारत काल का ही है.

शासति युधिष्ठिरे नृपते
पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर का इन्द्रप्रस्थ के राजा के रूप में राज्याभिषेक 17-12-3139 ई.पू. के दिन हुआ, इसी दिन युधिष्ठिर संवत की घोषणा हुई. उसके 5 दिन बाद उत्तरायण माघशुक्ल सप्तमी (रथ सप्तमी) को हुआ, अतः युधिष्ठिर का राज्याभिषेक प्रतिपदा या द्वितीया को था. युधिष्ठिर के राज्यारोहण के पश्चात चैत्र शुक्ल एकम (प्रतिपदा) से 'युधिष्ठिर संवत' आरम्भ हुवा. महाभारत और भागवत के खगोलिय गणना को आधार मान कर विश्वविख्यात डॉ. वेली ने यह निष्कर्ष दिया है कि कलयुग का प्रारम्भ 3102 बी.सी. की रात दो बजकर 20 मिनट 30 सेकण्ड पर हुआ था. यह बात उक्त मान्यता को पुष्ट करती है की भारत का सर्वाधिक प्राचीन युधिष्ठिर संवत की गणना कलियुग से 40 वर्ष पूर्व से की जाती है. युधिष्ठिर संवत भारत का प्राचीन संवत है जो 3142 ई.पू. से आरम्भ होता है. हिजरी संवत, विक्रम संवत, ईसवीसन, वीर निर्वाण संवत (महावीर संवत), शक संवत आदि सभी संवतों से भी अधिक प्राचीन है 'युधिष्ठिर संवत'. माहेश्वरी वंशोत्पत्ति संवत (वर्ष) है- 'युधिष्ठिर संवत 9' अर्थात माहेश्वरी वंशोत्पत्ति ई.पू. 3133 में हुई है. कलियुगाब्द (युगाब्द) में 31 जोड़ने से, वर्तमान विक्रम संवत में 3076 अथवा वर्तमान ई.स. में (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा/गुड़ी पाड़वा/भारतीय नववर्षारंभ से आगे) 3133 जोड़ने से माहेश्वरी वंशोत्पत्ति वर्ष आता है. वर्तमान में ई.स. 2018 चल रहा है. वर्तमान ई.स. 2018 + 3133 = 5151 अर्थात माहेश्वरी वंशोत्पत्ति आज से 5151 वर्ष पूर्व हुई है.

आज ई.स. 2018 में युधिष्ठिर संवत 5160 चल रहा है. माहेश्वरी वंशोत्पत्ति युधिष्ठिर संवत 9 में हुई है तो इसके हिसाब से माहेश्वरी वंशोत्पत्ति आज से 5151 वर्ष पूर्व हुई है. अर्थात "महेश नवमी उत्सव 2018" को माहेश्वरी समाज अपना 5151 वा वंशोत्पत्ति दिन मना रहा है.

माहेश्वरी समाज में युधिष्ठिर सम्वत का है प्रचलन 

समयगणना के मापदंड (कैलेंडर वर्ष) को 'संवत' कहा जाता है. किसी भी राष्ट्र या संस्कृति द्वारा अपनी प्राचीनता एवं विशिष्ठता को स्पष्ट करने के लिए किसी एक विशिष्ठ कालगणना वर्ष/संवत (कैलेंडर) का प्रयोग (use) किया जाता है. आज के आधुनिक समय में सम्पूर्ण विश्व में ईसाइयत का ग्रेगोरीयन कैलेंडर प्रचलित है. इस ग्रेगोरीयन कैलेंडर का वर्ष 1 जनवरी से शुरू होता है. भारत में कालगणना के लिए युधिष्ठिर संवत, युगाब्द संवत्सर, विक्रम संवत्सर, शक संवत (शालिवाहन संवत) आदि भारतीय कैलेंडर का प्रयोग प्रचलन में है. भारतीय त्योंहारों की तिथियां इन्ही भारतीय कैलेंडर से बताई जाती है, नामकरण संस्कार, विवाह आदि के कार्यक्रम पत्रिका अथवा निमंत्रण पत्रिका में भारतीय कैलेंडर के अनुसार तिथि और संवत (कार्यक्रम का दिन और वर्ष) बताने की परंपरा है.

माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति जब हुई तब कालगणना के लिए युधिष्ठिर संवत प्रचलन में था. मान्यता के अनुसार माहेश्वरी वंशोत्पत्ति युधिष्ठिर संवत 9 में ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष के नवमी को हुई है. इसीलिए पुरातन समय में माहेश्वरी समाज में कालगणना के लिए 'युधिष्ठिर संवत' का प्रयोग (use) किया जाता रहा है. वर्तमान समय में देखा जा रहा है की माहेश्वरी समाज में युधिष्ठिर संवत के बजाय विक्रम सम्वत या शक सम्वत का प्रयोग किया जा रहा है. विक्रम या शक सम्वत के प्रयोग में हर्ज नहीं है लेकिन इससे माहेश्वरी समाज की विशिष्ठता और प्राचीनता दृष्टिगत नहीं होती है. जैसे की यदि युधिष्ठिर संवत का प्रयोग किया जाता है तो, वर्तमान समय में चल रहे युधिष्ठिर संवत (वर्ष) में से 9 वर्ष को कम कर दे तो माहेश्वरी वंशोत्पत्ति वर्ष मिल जाता है. आज इ.स. 2018 में युधिष्ठिर संवत 5160 चल रहा है. 5160 में से 9 वर्ष को कम कर दें तो झट से दृष्टिगत होता है की माहेश्वरी वंशोत्पत्ति आज से 5151 वर्ष पूर्व हुई है. इसलिए माहेश्वरी समाज को अपनी पुरातन परंपरा को कायम रखते हुए "युधिष्ठिर संवत" का ही प्रयोग करना चाहिए.

माहेश्वरी संस्कृति की असली पहचान युधिष्ठिर संवत से होती है. माहेश्वरी समाज की सांस्कृतिक पहचान है युधिष्ठिर संवत. इसलिए माहेश्वरी समाज के महेश नवमी आदि सांस्कृतिक पर्व-उत्सव, बच्चों के नामकरण-विवाह आदि संस्कार, गृहप्रवेश तथा उद्घाटन, वर्धापन आदि सामाजिक व्यापारिक-व्यावसायिक कार्यों के अनुष्ठान, इन सबका दिन बताने के लिए विक्रम संवत, शक संवत या अन्य किसी संवत का नहीं बल्कि युधिष्ठिर संवत का उल्लेख किया जाना चाहिए, कार्यक्रमों के कार्यक्रम पत्रिका, आमंत्रण/निमंत्रण पत्रिका में युधिष्ठिर संवत का ही प्रयोग करना चाहिए. (जैसे की- महेश नवमी उत्सव 2018 मित्ति ज्येष्ठ शु. ९ युधिष्ठिर संवत ५१६० गुरूवार, दि. 21 जून 2018). जैसे "ऋषि पंचमी के दिन रक्षाबंधन, विवाह की विधियों में बाहर के फेरे (बारला फेरा)" माहेश्वरी समाज की विशिष्ठ पहचान को दर्शाता है वैसे ही "युधिष्ठिर संवत" का प्रयोग (use) किया जाना माहेश्वरी समाज की विशिष्ठ पहचान को दर्शाता है. हम आशा करते है की माहेश्वरी समाज में युधिष्ठिर संवत के प्रचलन की खंडित परंपरा की कड़ी को पुनः जोड़ा जायेगा, माहेश्वरी समाज की विशिष्ठ पहचान और गौरव को बढ़ाने लिए समाज के सभी संगठन और समस्त समाजजन सजग बनकर इसमें अपना योगदान देंगे. जय महेश !

(योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी द्वारा लिखित पुस्तक-
"माहेश्वरी वंशोत्पत्ति एवं इतिहास" से साभार)



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